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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
चतुर्थी दशा
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गणी को अपने कर्तव्य से च्युत कभी नहीं होना चाहिए | जिस कार्य के लिए जो समय नियत किया गया है वह कार्य उसी समय होना चाहिए । जैसे-उपकरणोत्पादन, स्वाध्याय-विधान, भिक्षाटन, धर्मोपदेश और उपचार (सेवा) आदि सब कार्य अपने-अपने समय में ही समाप्त हो जाने चाहिएं । ___ गणी की उपाधि प्राप्त करने पर साधु को उन्मत्त नहीं होना चाहिए, प्रत्युत अहंकार का परित्याग कर गुरू-जिसने दीक्षित किया, जिससे श्रुताध्ययन किया, जिसके नाम से शिष्य प्रसिद्ध हुआ और जो दीक्षा में बड़ा है, रत्नाकर आदि-के आजाने पर अभ्युत्थानादि क्रियाओं से उनका, आहार और वस्त्रादि से उनकी सेवा करना तथा यथाविधि उनकी वन्दना आदि करना उसका परम कर्तव्य है । इसी को यथागुरू पूजा कहते हैं ।
इस सत्र के इस कथन का सारांश यह निकला कि उपाधि केवल आज्ञा रूप है, उनके प्राप्त होने पर भी विनय-धर्म का पालन परमावश्यक है । जिस प्रकार एक राजपुत्र राजा होने पर भी अपने माता-पिता की नियम से वन्दना करता है इसी प्रकार गणी को भी करना चाहिए । हाँ, यदि किसी समय गणी किसी महासभा या महापुरूषों की मण्डली में बैठा हो और रत्नाकर पर दृष्टि पड़ जाय किन्तु वह (रत्नाकर) समीप न आवे तो वन्दना न करने पर भी अविनयादि के भाव उत्पन्न नहीं होंगे ।
इस सूत्र में संगठन का विषय स्पस्ट रूप से वर्णन किया गया है । इन्हीं नियमों के पालन से संगठन चिर-स्थायी रह सकता है । यही संग्रह-परिज्ञा नाम वाली आठवीं गणि-सम्पत् है ।
अब सूत्रकार गणी का शिष्य के प्रति क्या कर्तव्य है, इसका वर्णन करते हैं:
आयरिओ अंतेवासी इमाए चउविहाए विणय-पडिवत्तीए विणइत्ता भवइ निरणत्तं गच्छइ, तं जहा-आयार-विणएणं, सुय-विणएणं, विक्खेवणा-विणएणं, दोस-निग्घायण-विणएणं । __ आचार्योऽन्तेवासिनमनया चतुर्विधया विनय-प्रतिपत्त्या विनेता भवति-निऋणत्वं गच्छति । तद्यथा-आचार-विनयेन, श्रुत-विनयेन, विक्षेपणा-विनयेन, दोष-निर्घात-विनयेन ।
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