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चतुर्थी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
पदार्थान्वयः - आयरिओ-आचार्य अंतेवासी - अपने शिष्यों को इमाए - इस चउव्विहाए - चार प्रकार की विणय पडिवत्तीए - विनय - प्रतिपत्ति से विणइत्ता - शिक्षा देने वाला भवइ होता है तो वह निरणतं गच्छइ उऋण हो जाता है। तं जहा- जैसे आयार- विणणं- आचार - विनय से सुविणणं श्रुत-विनय से विक्खेवणा- विणणं-विक्षेपणा - विनय से दोस-निग्धायणा-विणएणं-दोष - निर्घात - विनय से सिखाने वाला हो ।
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मूलार्थ - आचार्य अपने शिष्यों को आचार, श्रुत, विक्षेपणा और दोषनिर्घात चार प्रकार की विनय प्रतिपत्ति सिखाने से उऋण हो जाता है |
टीका - इस सूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि आचार्य का अपने शिष्यों के प्रति क्या कर्त्तव्य है । जिस प्रकार शिष्यों का आचार्य के प्रति विनय - पालन कर्त्तव्य है, उसी प्रकार आचार्य का भी उनके प्रति कोई कर्त्तव्य अवश्य होना चाहिए । इसी बात को स्फुट करते हुए बताया गया है कि यदि गणी शिष्यों को चार प्रकार की विनय - प्रतिपत्ति से शिक्षित करे तो वह उनसे उऋण हो जाता है । इससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि जो गणी अपने शिष्यों को चार प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति से शिक्षित नहीं करता वह उनका ऋणी रहता है । और ऋणी व्यक्ति लौकिक व्यवहार के समान लोकोत्तर व्यवहार में भी निन्दा का पात्र होता है ।
अतः गणी का मुख्य कर्त्तव्य है कि अपने शिष्यों को आचार, श्रुत, विक्षेपणा और दोष-निर्घात विनय की शिक्षा प्रदान कर उनसे उऋण हो जाये । गणी ही शिष्यों को आचार्य - पद के योग्य बना सकता है, अतः वह अपने कर्त्तव्य का ध्यान रखते हुए हर एक प्रकार शिक्षा देकर उनको उसके योग्य बनावे । इसका प्रभाव दोनों लोकों में सुख- प्रद होता है ।
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अब सूत्रकार आचार - विनय का विषय वर्णन करते हैं
से किं तं आयार- विणए ? आयार- विणए चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा -संजम - सामायारी यावि भवइ, तव सामायारी यावि भवइ, गण- सामायारी यावि भवइ, एकल्ल - विहार- सामायारी यावि भवइ | सेतं आयार- विणए ||१||
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