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चतुर्थी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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व्यक्ति मुझे जगा रहा है इसका नाम अवाय-मति ज्ञान है; निश्यच होने के अनन्तर वह धारणा करता है कि अमुक व्यक्ति अमुक कार्य के लिए मुझे जगा रहा है, इसी का नाम धारणा-मति-ज्ञान है । मर्ति-ज्ञान निर्मल है, अतः उससे पदार्थों के स्वरूप का ठीक-ठीक ज्ञान हो जाता है।
अवग्रह-मति के छ: भेद होते हैं | जैसे-शिष्य या वादी के कहने मात्र से उसके भावों का ज्ञान हो जाना; एक प्रश्न को सुनते ही उसकी सिद्धि के लिए पांच सात ग्रन्थों के प्रमाणों की स्मृति हो जानी अथवा एक ही बार अनेक ग्रन्थों का अवग्रह कर लेना; अनेक प्रकार से ग्रहण करना जैसे-एक ही समय लिखना, पढ़ना, शुद्धाशुद्ध का ध्यान रखना तथा साथ ही कथा भी सुनाते जाना आदि अनेक क्रियाओं का करना और साथ ही उनका इस प्रकार ध्यान रखना, जैसे एक वाद्य-शास्त्र जानने वाला अनके वाद्यों (बाजों) का शब्द एकदम सुनकर भी प्रत्येक का पृथक-पृथक ज्ञान कर लेता है; जिस पदार्थ का ज्ञान हो जाय उसको निश्चल रूप से स्मरण रखना; जो कुछ भी पूछा जाये उस को हृदय पर अङ्कित कर लेना, जिससे स्मरण के लिए पुस्तकादि पर लिखने की आवश्यकता न हो और बिना किसी प्रतिबन्ध के समय पर स्मरण हो जाये; जिस पदार्थ का बोध हो उस में सन्देह के स्थान का न रहना । यही अवग्रह-मति-ज्ञान के छ: भेद हैं । इसी प्रकार ईहा और अवाय-मति-सम्पदाओं के भी छ:-छ: भेद जान लेने चाहिए ।
जिस प्रकार इनके छ:-छ: भेद प्रतिपादन किये गए हैं, इसी प्रकार धारणा-मति-सम्पदा के भी छः भेद होते हैं । जैसे-एक ही वस्तु के सुनने से बहुतों का धारण करना, अनेक प्रकार से धारण करना, प्राचीन बातों की स्मृति रखना, भांगा आदि कठिन संख्याओं का धारण करना, ग्रन्थ या किसी व्यक्ति की सहायता के बिना ही धारण करना, संशय रहित होकर पदार्थों के स्वरूप को यथावत् धारण करना, यही धारणा-मति-सम्पदा के छ: भेद हैं ।
जिस व्यक्ति को इस प्रकार विशद रूप से मति-ज्ञान जो जाये, वास्तव में वही महापुरूष पदार्थों के यथार्थ स्वरूप निर्णय करने में समर्थ हो सकता है । इसी का नाम मति-सम्पदा हे।
अब सूत्रकार इसके अनन्तर प्रयोग-सम्पदा का विषय कहते हैं:
से किं तं पओग-मइ-संपया ? पओग-मइ-संपया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-आयं विदाय वायं पउंज्जित्ता भवइ, परिसं
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