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em र तृतीय दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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अतः बिना रत्नाकर की आज्ञा प्राप्त किये उनके शय्या और आसन आदि पर 'बैठना' 'खड़ा होना' आदि क्रियाएं कभी नहीं करनी चाहिए । हां, रत्नाकर के रोग आदि से पीड़ित होने पर उनकी आज्ञा से उनके आसन पर वैयावृत्य (सेवा) आदि करने के लिए यदि बैठा जाये तो आशातना नहीं होती । अतः गुरू-भक्ति करते हुए आत्म-कल्याण करना चाहिए ।
अब सूत्रकार फिर उक्त विषय की ही आशातना का निरूपण करते हैं:
सेहे रायणियस्स उच्चासणंसि वा समासणंसि वा चिट्ठित्ता वा निसीइत्ता वा तुयट्टित्ता वा भवइ आसायणा सेहस्स ।।३३।।
शैक्षो रात्निकस्योच्चासने वा समासने वा स्थाता वा निषीदिता वा त्वग्वर्तिता वा भवत्याशातना शैक्षस्य ।।३३।।।
पदार्थान्वयः-सेहे-शिष्य रायणियस्स-रत्नाकर के उच्चासणंसि-ऊंचे आसन पर वा-अथवा समासणंसि-समान आसन पर चिट्ठित्ता वा-खड़ा हो अथवा निसीइत्ता-बैठ जाये वा–अथवा तुयट्टित्ता-शयन करे तो सेहस्स-शिष्य को आसायणा-आशातना भवइ-होती
मूलार्थ-शिष्य यदि गुरू से ऊंचे आसन पर या गुरू के बराबरी के आसन पर खड़ा हो, बैठे अथवा शयन करे तो उसको आशातना लगती
टीका-इस सूत्र में बताया गया है कि शिष्य को गुरू से ऊंचा तथा उनकी बराबरी का आसन कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे विनय-भङ्ग और स्वचछन्दत्ता की वृद्धि होती है । साथ ही अन्य शिष्यों के भी अविनयी होने को भय है, क्योंकि गुणों की अपेक्षा दोषों का शीघ्र विस्तार होता है । अतः शिष्य को कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे उसका अविनय प्रकट हो ।
गुरू से ऊंचे तथा गुरू के बराबरी के आसन पर बैठना आदि क्रियाएं करना निषिद्ध है, किन्तु रोग आदि विशेष कारण के उपस्थित होने पर समयानुसार गुरू की आज्ञा से ऊंचे तथा बराबरी के आसन पर बैठने से भी कोई दोष नहीं होता । यही इस में अपवाद
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