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चतुर्थी दशा
तीसरी दशा में तेतीस आशातनाओं का वर्णन किया जा चुका है । अब सूत्रकार इस चौथी दशा में आचार - सम्पत् का विषय वर्णन करते हैं । पहली दशा में बीस असमाधि - स्थानों के, दूसरी दशा में इक्कीस शबल दोषों के और तीसरी दशा में तेतीस आशातनाओं के छोड़ने का उपदेश दिया है । इन सब के परित्याग से शिष्य 'गणी' पद
योग्य हो जाता है । इस चौथी दशा में पूर्व तीन दशाओं से सम्बन्ध रखते हुए शास्त्र - कार 'गणि - सम्पत्' का विषय वर्णन करते हैं ।
प्रश्न यह होता है कि 'गणि-सम्पत्' किसे कहते हैं ? उत्तर में कहा जाता है कि 'गणि' और 'सम्पत्' दो पदों के मेल से बना हुआ है । उन में से 'गणी' गण शब्द से बनता है । साधुओं अथवा ज्ञानादि गुणों के समुदाय को 'गण' कहते हैं ओर उक्त गण के अधिपति की 'गणी' संज्ञा होती है । उस 'गणी' की द्रव्य और भाव से जो कुछ भी सम्पत्ति हो उसको 'गणि-सम्पत्' कहते हैं अर्थात् गणी की लक्ष्मी (अलौकिक और अनुपम शक्ति) को 'गणि-सम्पत्' कहते हैं ।
यद्यपि 'गणि-सम्पत' आठ प्रकार की वर्णन की गई है तथापि मुख्यतया गणी में - संग्रह और उपग्रह-दो गुण अवश्य होने चाहिए, वस्त्र और पात्रादि का संग्रह करना और वस्त्र, पात्र और ज्ञानादि से शिष्यादि का उपग्रह (उपकार) करना ये दो मुख्य गुण हैं । इन दो गुणों के होने पर शेष सब गुण सहज में ही उत्पन्न हो सकते हैं । गणी को गुणों से पूर्ण अवश्य होना चाहिए, क्योंकि बिना गुणों के वह गण की रक्षा नहीं कर सकता और गण-रक्षा ही उसका मुख्य कर्तव्य है ।
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