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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
की गणि-संपया-गणि-सम्पत् पण्णत्ता - प्रतिपादन की है। शिष्य ने प्रश्न किया कि कयरा - कौन सी खलु - पूर्ववत् अवधारण अर्थ में है अट्ठ-विहा - आठ प्रकार की गणि-संपया-गणि-सम्पत् पण्णत्ता - प्रतिपादन की है ? गुरू ने उत्तर में कहा कि इमा- यह खलु - पूर्ववत् अवधारण अर्थ में है अट्ठ-विहा - आठ प्रकार की गणि संपया - गणि-सम्पत् पण्णत्ता - प्रतिपादन की है। तं जहा- -जैसे:
चतुर्थी दशा
मूलार्थ - हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने सुना है उस भगवान् ने इस प्रकार प्रतिपादन किया है। इस जिन-शासन में स्थविर भगवन्तों ने आठ प्रकार की गणि-सम्पत् प्रतिपादन की है। शिष्य ने प्रश्न किया "हे भगवन् ! कौन सी आठ प्रकार की गणि-सम्पत् प्रतिपादन की है ? गुरू ने उत्तर दिया "यह आठ प्रकार की गणि-सम्पत् प्रतिपादन की है" जैसे:
टीका - इस सूत्र में सूत्रकार ने स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार श्रीभगवान् ने प्रतिपादन किया है और जिस प्रकार मैंने श्री जी के मुख से श्रवण किया है उसी प्रकार मैं कहता हूँ ।
इस कथन से श्रुत-ज्ञान की सम्यक्ता सिद्ध की गई है, क्योंकि मिथ्या - श्रुत सदैव आत्मा के मिथ्या - भावों को उत्तेजित करता रहता है और श्रुत - ज्ञान आत्मा के निज स्वरूप प्रकट करने में सहायक होता है । अतः श्रुत - ज्ञान प्राणि - मात्र के लिए उपादेय है ।
इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट किया है कि आप्त-वाक्य ही सार्थक होता है और सर्वज्ञों के कथन को ही आप्त-वाक्य कहते हैं । यह सूत्र सर्वज्ञोक्त होने से सर्वथा मान्य और प्रमाण है । अतः इस सूत्र में कथन की हुई शिक्षा उभय-लोक में हितकारी है ।
वास्तव में आत्मिक - सम्पत् ही आत्मा की भाव- सम्पत् है और द्रव्य - सम्पत् क्षणिक और नश्वर (नाश होने वाली ) हैं । भाव - सम्पत् सदैव आत्मा के साथ रहती है और आत्म-स्वरूप को प्रकट करने वाली होती है ।
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प्रस्तुत दशा में भाव - सम्पत् का ही विशेषतया वर्णन किया गया है जिस का प्रथम सूत्र निम्नलिखित है
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