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चतुर्थी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
१-आचार-(यार) संपया २-सुय-संपया ३-सरीर-संपया ४-वयण-संपया ५-वायणा-संपया ६-मइ-संपया ७-पओग-संपया ८-संगह-परिन्ना अट्ठमा ।।
१ आचार-सम्पत् २ श्रुत-सम्पत् ३ शरीर-सम्पत् ४ वचन-सम्पत् ५-वाचना-सम्पत् ६ मति-सम्पत् ७ प्रयोग-सम्पत् ८ संग्रह-परिज्ञाष्टमी ।
पदार्थान्वयः-आचार-(यार) संपया-आचार-सम्पत् सुय-संपया-श्रुत-संपत् सरीर-संपया-शरीर-सम्पत् वयण-संपया-वचन-सम्पत् वायणा-संपया-वाचना-सम्पत् मइ-संपया-मति- सम्पत् पओ ग-संपया-प्रयोग-सम्पत् अट्ठमा-आठवीं संग्रह-परिन्ना-संग्रह-परिज्ञा नाम वाली होती है । - मूलार्थ-सम्पत्-आचार-सम्पत्, श्रुत-सम्पत्, शरीर-सम्पत्, वचन-सम्पत्, वाचना-सम्पत्, मति-सम्पत्, प्रयोग-सम्पत्, और संग्रह-परिज्ञा भेदों से-आठ प्रकार की होती है।
टीका-इस सूत्र में आठ सम्पदाओं का नाम-आख्यान किया गया है । इनकी क्रमपूर्वक होने में ही सार्थकता है । जैसे-सब से प्रथम आचार-शुद्धि की आवश्यकता है । जिसका आचार शुद्ध है उसके प्रायः सभी व्यवहार शुद्ध होते हैं । अतः प्राणि-मात्र के लिए सदाचार, भोजन और जल के समान परम आवश्यक है । वास्तव में सबसे बढ़कर आचार-रूपी सम्पत् ही ऐसी है जो सदैव आत्मा के सह-वर्तिनी है । आचार के अनन्तर श्रुत-सम्पत् है, क्योंकि सदाचार का ही श्रुत प्रशंसनीय होता है । इसके अनन्तर शरीर-सम्पत् आती है, क्योंकि श्रुतज्ञान का द्रव्य-आधार केवल शरीर ही है । यदि शरीर नीरोग और भली प्रकार स्वस्थ हो तभी श्रुत-ज्ञान के प्रचार की सफलता हो सकती है । इसके अनन्तर वचन-सम्पत् है, क्योंकि श्रुत-ज्ञानी यदि मधुर-भाषी होगा तभी उसका श्रुत-ज्ञान चरितार्थ हो सकता है । पाँचवी वाचना-सम्पत् है । वचन-सम्पत् के अनन्तर इस का होना परम आवश्यक है, क्योंकि स्वयं श्रुत-ज्ञानी होने पर भी यदि वह योग्यता पूर्वक श्रुत-ज्ञान का जनता में प्रचार नहीं कर सकता तो वह गणी नहीं कहलाया जा सकता है । छठी मति-सम्पत् है । इसका तात्पर्य यह है कि स्वयं अधिगत (प्राप्त) श्रुत-ज्ञान बुद्धिमता से ही प्रदान करना चाहिए तभी सुनने वालों को उससे लाभ हो
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