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चतुर्थी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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क्रियाओं में भी जिस के योग ध्रुव हैं य-शब्द समुच्चय अर्थ में है । असंपगहिय-अप्पा-अहंकार न करने वाला अणियत-वित्ती-अप्रतिबद्ध होकर विहार करने वाला वुड्ड-सीले भवइ-वृद्ध के जैसा स्वभाव धारण करने वाला 'अवि' और 'ये' शब्द से प्रत्येक कार्य में चंचलता से रहित और गाम्भीर्य गुण धारण करने वाला से तं-यह वह आचार-संपया-आचार-सम्पत्
मूलार्थ-शिष्य ने प्रश्न किया "भगवन् ! आचार-सम्पत् किसे कहते हैं ?" गुरू ने उत्तर दिया "आचार-सम्पत् चार प्रकार की प्रतिपादन की गई है । जैसे-१-संयम क्रियाओं में ध्रुव-योग-युक्त होना २-अहङ्कार रहित होना ३-अप्रतिबद्ध होकर विहार करना ४-वृद्धों के जैसा स्वभाव धारण करना यही चार प्रकार की आचार-सम्पत् होती है ।
टीका-इस इस सूत्र में गुरू शिष्य के परस्पर प्रश्न-उत्तर रूप से आचार-सम्पत् का वर्णन किया गया है । जैसे-शिष्य ने प्रश्न किया "हे भगवन् ! आचार-सम्पत् किसे कहते हैं ? गुरू ने उत्तर दिया-हे शिष्य ! चरित्र की दृढ़ता का नाम 'आचार-सम्पत' है | किन्तु उसके चार भेद होते हैं, जैसे-१-संयम क्रियाओं में ध्रुव-योग-युक्त होना अर्थात् जितनी भी संयम-क्रियाएं हैं उन में योगों की स्थिरता का होना आवश्यक है क्योंकि तभी उन क्रियाओं का उचित रीति से पालन हो सकता है । २-गणी की उपाधि मिलने पर या संयम-क्रियाओं की प्रधानता पर अहंकार न करना अर्थात् सब के समाने सदा विनीत-भाव से रहना, इसी से आचार शुद्ध रह सकता है न कि मिथ्या-अभिमान से । ३-अप्रतिबद्ध-भाव से विचरण करना, क्योंकि अप्रतिबद्ध होकर विचरण करने वाले व्यक्ति का ही आचार दृढ़ रह सकता है | जो स्थिर-वास-सेवी होता है उस के आचार में प्रायः शिथिलता आ जाती है । अतः गणी को सदा अनियत-वृत्ति होना चाहिए । ४-यदि किसी कारण से छोटी अवस्थ में ही 'गणी' पद की प्राप्ति हो जाये तो उस को अपना स्वभाव वृद्धों जैसा बनाना चाहिए, क्योंकि जब तक स्वभाव चंचल रहेगा तब तक आचार-सम्पत् में अतिचार आदि दोषों के होने की संभावना है । अतः स्वभाव में परिवर्तन अवश्य होना चाहिए, तभी आचार शुद्ध हो सकता है ।
क्योंकि मनुष्य का जीवन वास्तव में आचार ही है अतः इस की रक्षा विशेष रूप से । होनी चाहिए । यही आचार-सम्पत् है ।
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