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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
चतुर्थी दशा
सकता है । सातवीं प्रयोग-सम्पत् है, अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देख कर ही किसी विवाद के लिए उद्यत होना चाहिए । आठवीं संग्रह-परिज्ञा-सम्पत् है, जिसका भाव यह है कि बुद्धि-पूर्वक गण का संग्रह (संगठन) करना चाहिए । संग्रह लोकोत्तर पक्ष के समान लौकिक व्यवहार में भी परम आवश्यक है क्योंकि संग्रह से प्रायः प्रत्येक कार्य सहज ही में हो सकता है । ___ 'सम्पत्' शब्द के तकार को निम्नलिखित सूत्र से आकर या यकार हो जाता है-“स्त्रियामादविद्युतः स्त्रियां वर्तमानस्य शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्यात्वं भवति विद्युच्छब्दं वर्जयित्वा । लुगपवादः । सरित् । सरिआ । प्रतिपत् । पाडिवआ | संपत् । संपआ । बहुलधिकारादीषत्स्पृष्टतरा 'य' श्रुतिरपि सरिया पाडिवया । संपया । अविद्युत् किम् विज्जू ।।१५।।
संस्कृत भाषा में ऊपर कहे हुए शब्द हलन्त तथा अजन्त दोनों प्रकार के होते हैं । ___ इस सूत्र में आठ सम्पदाओं का केवल नाम-निर्देश किया गया है । अब सूत्रकार प्रत्येक सम्पत् की उपभेदों के सहित व्याख्या करते हैं । उनमें सबसे प्रथम आचार सम्पत् है । इसलिए वक्ष्यमाण सूत्र में उसका ही विषय कहते हैं:
से किं तं आचार-संपया ? आचार-संपया चउ-विहा पण्णत्ता । तं जहा-संजम-धुव-जोग-जुत्ते यावि भवइ, असंपगहिय-अप्पा अणियत-वित्ती वुड्ड-सीले यावि भवइ । से तं आयार-संपया ।।१।। ___ अथ का सा आचार-सम्पत् ? आचार-सम्पच्चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-संयम-धु व-योग-युक्तश्चापि भवति, असंप्रग्रहीतात्मा, अनियत-वृत्तिःवृद्ध-शीलश्चापि भवति । सैषाचार-सम्पत् ।।१।। ___पदार्थान्वयः-से किं तं आचार-संपया ?-शिष्य ने प्रश्न किया “हे भगवन् ! आचार-सम्पत् किसे कहते हैं ?" गुरू ने उत्तर दिया “हे शिष्य ! आचार-संपया-आचार-सम्पत् चउ-विहा-चार प्रकार की पण्णत्ता-प्रतिपादन की है ।" तं जहा-जैसे संजम-धुव-जोगजुत्ते-संयम क्रियाओं में जो ध्रुवयोग युक्त भवइ-है अवि-शब्द से अन्य
* प्रस्तुत दशा के वृत्तिकार ने भी वृत्ति में दोनों प्रकार के शब्दों का ग्रहण किया है ।
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