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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
चतुर्थी दशा
अब सूत्रकार श्रुत-सम्पत् के विषय में कहते हैं:
से किं तं सुय-संपया ? सुय-संपया चउ-विहा पण्णत्ता । तं । जहा-बहु-सुए यावि भवइ, परिचय-सुए (ते) यावि भवइ, विचित्त-सुए यावि भवइ, घोस-विसुद्धि-कारए यावि भवइ, सेतं सुय-संपया ।।२।।
अथ का सा श्रुत-सम्पत् ? श्रुत-सम्पच्चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-बहुश्रुतश्चापि-भवति, विचित्र-श्रुतश्चापि भवति, घोषविशुद्धि-कारकश्चापि भवति । सैषा श्रुत-सम्पत् ।।२।। __पदार्थान्वयः-से किं तं -शिष्य प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! कौन सी सुय-संपया-श्रुत-सम्पत् है । गुरू उत्तर देते हैं-हे शिष्य ! सुय-संपया-श्रुत-सम्पत् चउ-विहा-चार प्रकार की पण्णत्ता-प्रतिपादन की गई है ।" तं जहा-जैसे बहु-सुय-जो बहु-श्रुत यावि भवइ-हो तथा 'अपि' और 'च' शब्द से जितने श्रुत पढ़ सकता हो और उनका अध्ययन करने वाला हो परिचय-सुय-जो सब श्रुत जानने वाला यावि भवइ-होता है विचित्त-सुय-स्व-समय और पर-समय के सूत्रों के अधिगत होने से जिसके व्याख्यानादि में विचित्रता यावि भवइ-होती है । घोसविसुद्धि-कारय-जो श्रुत-शुद्ध से सूत्र-सम्बन्धी सब विषय जान लेने चाहिए सेतं-यह वह सुय-संपया-श्रुत-सम्पत् है।
मूलार्थ-शिष्य ने प्रश्न किया कि हे भगवन् ! श्रुत-सम्पत् कौन सी है ?" गुरू ने उत्तर दिया श्रुत-सम्पत् चार प्रकार की होती है । जैसे-बहु-श्रुतता, परिचित-श्रुतता, विचित्र-श्रुतता और घोष-विशुद्धि-कारकता | यही श्रुत-सम्पत् है।
टीका-आचार-सम्पत् के अनन्तर अब सूत्रकार श्रुत-सम्पत् का विषय वर्णन करते हैं | आत्मा के श्रुत-ज्ञान से पूर्णतया अलङ्कृत होने का नाम श्रुत-सम्पत् है, अर्थात् बहु-श्रुतता का होना ही गणी की श्रुत-सम्पत् है । जिसने सब सूत्रों में से मुख्य ग्रन्थों का विचार–पूर्वक अध्ययन किया हो और उन ग्रन्थों में आए हुए पदार्थों के भली भांति निर्णय करने की शक्ति प्राप्त की हो तथा जो बहु-श्रुत में होने वाले गुणों का ठीक-ठीक पालन कर सके उसको बहु-श्रुत या श्रुत-सम्पत्-धारी कहते हैं । जिसको अधीत (पढ़ा
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