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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
तृतीय दशा
'उत्सर्ग-मार्ग' सामान्य-वर्ती होता है और 'अपवाद-मार्ग' किसी विशेष कारण के उपस्थित होने पर 'उत्सर्ग-मार्ग' से अन्यथा चलने का नाम है । किन्तु उत्सर्ग-मार्ग से अन्यथा चलने के लिए श्री भगवान् और गुरू की आज्ञा लेना परम आवश्यक है ।
सारांश यह निकला कि विनीत बनने के लिए आशातनाओं का परित्याग अनिवार्य है | आशातनाओं से आत्म–विराधना और संयम-विराधना सहज ही में हो सकती है, अतः अपनी हित'कामना करने वाले व्यक्ति को इनका सर्वथा परित्याग करना चाहिए । इसके अतिरिक्त आशातनाओं के सेवन से मनुष्य का मान भी घट जाता है ।
अब सूत्रकार प्रस्तुत दशा का उपसंहार करते हुए कहते हैं:
एयाओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं तेत्तीसं आसायणाओ पण्णत्ताओ तिबेमि ।
इति तइया दसा समत्ता । एताः खलु ताः स्थविरैर्भगवद्भिस्त्रयस्त्रिंशदाशातनाः प्रज्ञप्ता इति ब्रवीमि ।
इति तृतीया दशा समाप्ता । पदार्थान्वयः-एयाओ-यह ताओ-वे थेरेहिं-स्थविर भगवंतेहिं-भगवन्तों ने तेत्तीसं-तेतीस आसायणाओ-आशातनाएं पण्णत्ताओ-प्रतिपादन की हैं तिबेमि-इस प्रकार तइया-तीसरी दसा-दशा समत्ता-समाप्त हुई ।
मूलार्थ-स्थविर भगवन्तों ने यही पूर्वोक्त तेतीस आशातनाएं प्रतिपादन की हैं । इस प्रकार मैं कहता हूँ।
टीका-इस सूत्र में तीसरी दशा का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि यही तेतीस आशातनाएं स्थविर भगवन्तों ने प्रतिपादन की हैं ।
इस अध्ययन के पहिले सूत्र में वर्णन किया गया था कि स्थविर भगवन्तों ने तेतीस आशातनाएं प्रतिपादन की हैं; उस पर शिष्य ने प्रश्न किया था कि कौन सी तेतीस आशातनाएं स्थविर भगवन्तों ने प्रतिपादन की हैं ? गुरू ने “एताः खलु” इत्यादि से प्रारम्भ
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