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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
तृतीय दशा
यह जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है कि शय्या और संस्तारक में क्या भेद है ? उत्तर में कहा जाता है कि शय्या सर्वाङ्गीण होती है और संस्तारक सार्द्ध-हस्तद्वय (ढाइ हाथ) मात्र होता है, अथवा जो नग्न भूमि पर बिछा हुआ होता हे उसको शय्या और जो काष्ठ-पीठ (तख्त) पर बिछा होता है उसको संस्तारक कहते हैं । अथवा (शैय्यैव संस्तारक:-शय्या-संस्तारकः, शय्यायां वा संस्तारकः-शय्या-संस्तारकस्तम्” इत्यादि ।
सिद्धान्त यह निकला कि गुरू के किसी भी उपकरण से, बिना उसकी आज्ञा के, उपयोग अथवा अनुपयोग पूर्वक पाद-स्पर्श हो जाय तो शिष्य को अवश्य उससे क्षमा-प्रार्थना करनी चाहिए ।
अब सूत्रकार गुरू के आसन पर अन्य क्रियाओं के करने से उत्पन्न होने वाली आशातना का निरूपण करते हैं:
सेहे रायणियस्स सिज्जा-संथारए चिट्टित्ता वा निसीइत्ता वा तुयट्टित्ता वा भवइ आसायणा सेहस्स ।।३२।।
शैक्षो रात्निकस्य शय्या-संस्तारके स्थाता वा निषीदिता वा त्वग्वर्तिता वा भवत्याशातना शैक्षस्य ।।३२।।
पदार्थान्वयः-सेहे-शिष्य रायणियस्स-रत्नाकर के सिज्जा-शय्या और संथारए-संस्तारक के ऊपर चिट्ठित्ता-खड़ा हो वा अथवा निसीइत्ता-बैठे वा-अथवा तुयट्टित्ता-शयन करे या लेट कर पार्श्व-परिवर्तन करे तो सेहस्स-शिष्य को आसायणा-आशातना भवइ-होती है।
मूलार्थ-शिष्य रत्नाकर के शय्या-संस्तारक पर यदि खड़ा हो, बैठे या शयन करे तो उसको आशातना लगती है ।
टीका-इस सूत्र में बताया गया है कि शिष्य को बिना रत्नाकर की आज्ञा के उसकी शय्या पर न खड़ा होना चाहिए, न बैठना चाहिए, ना ही उस पर शयन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से एक तो विनयभङ्ग होता है, दूसरे जनता को उस (शिष्य) की असभ्यता का परिचय मिलता है । और जनता के हृदय से गुरू और शिष्य दोनों का मान उठ जाता है तथा धर्म और व्यक्ति दोनों की लघुत्ता हो जाती है ।
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