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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
तृतीय दशा
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शैक्षो रात्निकस्य कथां कथयतस्तस्यां परिषद्यनुत्थितायामभिन्नायामव्युच्छिन्नायां द्वितीयं तृतीयं वारमपि तामेव कथां कथयिता भवत्याशातना शैक्षस्य ।।३०।। ___ पदार्थन्वयः-सेहे-शिष्य रायणियस्स-रत्नाकर के कह-कथा कहेमाणस्स-कहते हुए तीसे-उस परिसाए-परिषद् के अणुट्टियाए-उठने के पहिले अभिन्नाए-भिन्न होने के पहिले अवुच्छिन्नाए-व्यवच्छेद होने के पहिले अव्वोगडाए-बिखरने के पहिले तमेव-उसी कह-कथा को दोच्चंपि-दो बार तच्चंपि-तीन बार विस्तार-पूर्वक कहित्ता-कहता है तो सेहस्स-शिष्य को आसायणा-आशातना भवइ-होती है ।
मूलार्थ-शिष्य रत्नाकर के कथा करते हुए एकत्रित हुई परिषत् के उठने के, भिन्न होने के, व्यवच्छेद होने के और बिखरने के पूर्व यदि कथा को दो या तीन बार कहे तो शिष्य को आशातना होती है ।
टीका-इस सूत्र में बताया गया है कि शिष्य को अपनी प्रतिभा का निर्थक अपव्यय नहीं करना चाहिए । जैसे-जिस परिषद् में रत्नाकर कथा कर रहा है उसके उठने से, भिन्न होने से और बिखरने से पहिले यदि शिष्य उसी विषय को दो या तीन बार विस्तार-पूर्वक कहने लगे तो शिष्य को आशातना होती है, क्योंकि ऐसा करने से उसका अभिप्राय केवल रत्नाकर की लघुता और अपनी प्रतिभा की प्रशंसा का ही हो सकता है, अर्थात वह जनता को यह दिखाना चाहता है कि गुरू की अपेक्षा शिष्य अधिक प्रतिभा-शाली है । किन्तु इस प्रकार अपनी प्रतिभा द्योतन के लिये ही यदि कथा की दो तीन बार आवृति करे तो उसको आशातना लगती है और यदि गुरू ही विस्तार-पूर्वक वर्णन करने की आज्ञा प्रदान करे तो किसी प्रकार की आशातना नहीं होती है, क्योंकि आशातना का सम्बन्ध मनो-गत भावों से ही होता है । यदि कोई कार्य अहं-वृत्ति से किया जाएगा तो शिष्य को आशातना लगेगी और यदि अहंवृत्ति को छोड़ हित-बुद्धि से किया जाएगा तो किसी प्रकार की आशातना नहीं होती।
सारे कथन का निष्कर्ष यह निकला कि अहं-मन्यता के भावों को छोड़कर केवल विनय-धर्म और गुरू-भक्ति के आश्रित होकर ही प्रत्येक कार्य में प्रवृत होना चाहिए । इससे आत्मा दोनों लोकों में यश का पात्र बन जाता है ।
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