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तृतीय दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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सारांश यह निकला कि अपवाद-मार्ग को छोड़कर उत्सर्ग-मार्ग के आश्रित होत हुए रत्नाकर को बिना पूछे और बिना उसकी आज्ञा प्राप्त कोई भी आहारादि पदार्थ किसी । को न दे।
अब सूत्रकार एक पात्र में भोजन से सम्बन्ध रखने वाली आशातना कहते हैं:
सेहे असणं वा....पडिगाहित्ता रायणिएणं सद्धिं भुंजमाणे तत्थ सेहे खद्धं खद्धं, डागं डागं, उसढं उसढं, रसियं रसियं, मणुन्नं मणुन्नं, मणामं मणाम, निद्धं निद्धं, लुक्खं लुक्खं, आहारित्ता भवइ आसायणा सेहस्स ।।१८।।
शैक्षोऽशनं वा....प्रतिगृह्य रात्निकेन सार्द्धं भुजानस्तत्र शैक्षः प्रचुरं-प्रचुरं, डाक-डाकं, उच्छ्रितमुच्छ्रितं, रसितं- रसितं, मनोज्ञ-मनोज्ञ, मन-आप्त-मन-आप्त, स्निग्धं-स्निग्धं, रूक्ष-रूक्षमाहारयिता भवत्याशातना शैक्षस्य ।।१८।।
पदार्थान्वयः-सेहे-शिष्य असणं वा..अशन, पानी, खादिम, स्वादिम को पडिगाहित्ता-लेकर रायणिएणं-रत्नाकर के सद्धिं-साथ भुञ्जमाणे-भोगता हुआ तत्थ-वहां सेहे-शिष्य खद्धं खद्धं-प्रचुर-२ डागं डाग-आम्लरस युक्त (विभिन्न प्रकार के शाक) उसढं उसढं-वर्ण और रस से युक्त रसियं रसियं-रस युक्त मणुन्नं मणुन्नं-मनोज्ञ आहार मणामं मणाम-मन का प्रिय भोजन निद्धं निद्ध-स्निग्ध आहार लुक्खं लुक्खं-रूक्ष-रूक्ष लेकर आहारित्ता-आहार करता है तो सेहस्स-शिष्य को आसायणा-आशातना भवइ-होती है ।
मूलार्थ-शिष्य अशनादि लाकर रत्नाकर के साथ आहार करते हुए यदि प्रचुर-२ आम्लरसयुक्त (विभिन्न प्रकार के शाक), रसादि गुणों से युक्त, सरस, मनोज्ञ, मन-चाहा, स्निग्ध या रूक्ष पदार्थों का शीघ्र-२ आहार करने लगे तो उसको आशातना लगती है।
टीका-इस सूत्र में बताया गया है कि यदि कभी शिष्य को रत्नाकर के साथ एक पात्र में भोजन करने का अवसर प्राप्त हो जाये तो उसको किस विधि से भोजन करना
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