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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
तृतीय दशा
पर सेहे-शैक्ष पुव्वतरागं-गुरू से पहिले ही आलोएइ-आलोचना करता है पच्छा-पश्चात् रायणिए-रत्नाकर आलोचना करता है तो सेहस्स-शिष्य को आसायणा-आशातना होती
मूलार्थ-रत्नाकर के साथ शिष्य बाहर, विचार-भूमि को जाए और वहां वह (शिष्य) पहिले और गुरू पीछे आलोचना करे तो शिष्य को आशातना लगती है। _____टीका-इस सूत्र में रत्नाकर-विषयक-विनय की ही शिक्षा दी गई है । जैसे-शिष्य गुरू के साथ बाहर, उच्चार-भूमि या स्वाध्याय-भूमि को जाए, वहां से स्वकार्य के अनन्तर उपाश्रय में वापिस आने पर शिष्य यदि गुरू से पूर्व ही 'ईरिया-बहि' द्वारा आलोचना आरम्भ करदे अर्थात् आते और जाते समय जो क्रियाएं हुई थी उनकी आलोचना बिना गुरू की आज्ञा के गुरू से पहले ही करने लगे तो उस (शिष्य) को आशातना लगती है, क्योंकि इस से विनय-भङ्ग होता है ।
किन्तु यदि गुरू किसी कारण से शिष्य को 'ईरिया-बहि द्वारा आलोचना करने की आज्ञा प्रदान करदे तो गुरू से पूर्व आलोचना करने पर भी शिष्य को आशातना नहीं होती
__ सूत्र की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं "विचार-भूमिरुच्चार-भूमिका' अर्थात 'विचार-भूमि' उच्चार-भूमि का नाम है और विहार-भूमि' स्वाध्याय-भूमि का नाम है । किन्तु जैनागम-शब्द-संग्रह-कोष' (अर्द्धमागधी-गुजराती) के ७०२वें पृष्ट पर लिखा है-विहार-पु. (विहार) क्रीडा; गम्मत; बुद्ध भिक्षु को नो मठ; विचरQ एक स्थले थी बीजे स्थलेज वृं; स्वाध्याय; शहेरवाहिरनी वस्ति; मल-त्याग करवानी जग्या-स्थान; विशेष अनुष्ठान भगवत् कथित मार्ग मा पराक्रम वताव, ते; आचार; मर्यादा । उक्त आठ अर्थों में विहार शब्द प्रयुक्त होता है । _ विहार-भूमि' शब्द केवल दो अर्थों में ही व्यवहृत होता है । जैसे उक्त कोष के उक्त पृष्ठ पर ही लिखा है-विहार-भूमि-स्त्री.-(विहार-भूमिद्ध स्वाध्याय करवानी भूमि; स्वाध्याय करवानी जंग्या; क्रीडा करवानी भूमि, वगीचा वगेरे ।
अतः उक्त कथन से सिद्ध हुआ कि विनय की रक्षा के लिए गुरू के साथ विहार-भूमि या विचार-भूमि में जाकर शिष्य गुरू से पूर्व कभी आलोचना न करे |
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