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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
तृतीय दशा
शैक्षः रात्निकेन सार्द्ध बहिर्विचार-भूमि वा निष्क्रान्तः सन (यदि) तत्र शैक्षः पूर्वतरकमाचमति पश्चाद् रात्निकः, भवति आशातना शैक्षस्य ।।१०।।
पदार्थान्वयः-सेहे-शिष्य रायणिएणं-रत्नाकर के सद्धिं-साथ बहिया-बाहर वा अथवा वियार-भूमि-मलोत्सर्ग की भूमि पर निक्खंते समाणे-गया हुआ हो तत्थ-वहां पुव्वतराग-पहले सेहे-शिष्य आयमइ-आचमन करता हे पच्छा-पीछे रायणिए-रत्नाकर-ऐसा करने से सेहस्स-शिष्य को आसायणा-आशातना भवइ-होती है ।
मूलार्थ-शिष्य रत्नाकर के साथ यदि मलोत्सर्ग भूमि पर गया हो, (कारणवशात् दोनों एक ही पात्र में जल ले गए हों) ऐसी अवस्था में यदि शिष्य गुरू से पहिले आचमन करे तो शिष्य को आशातना होती है ।
टीका-इस सूत्र में शौच और विनय के विषय में कथन किया गया है । जैसे-किसी समय रत्नाकर और शिष्य एक ही साथ विचार-भूमि (मलोत्सर्ग के स्थान) को चले गए, किसी कारण से दोनों एक ही पात्र में जल ले गये, उस जल को एक संकेतित स्थान पर रख दोनों अलग-अलग मलोत्सर्ग के लिए चले गये, अब यदि शिष्य पहले आकर गुरू या रत्नाकर से पूर्व ही उस जल से आचमन (शौच) कर बैठे तो शिष्य को आशातना लगती है; क्योंकि ऐसा करने से विनय-भंग होता है और साथ ही गुरू के न रहने से आत्मा असमाधि-स्थान की प्राप्ति करता है । अतः कारणवशात एक ही पात्र में जल ले जाने पर शिष्य को कभी भी गुरू से पहले शौच नहीं करना चाहिए । अर्थात् विधि पूर्वक जब गुरू शौच कर ले तभी शिष्य करे |
अब यह जिज्ञासा होती है कि यदि जल एक ही पात्र में न हो किन्तु पृथक्-२ पात्रों में हो तो किस विधि से शौच करना चाहिए ? समाधान में कहा जाता है यदि साधु के पास शोच के लिए पृथक् जल-पात्र हो तो वह उस पात्र को मल-त्याग-स्थान के अति समीप न रखे नाही अत्यन्त दूर रखे किन्तु प्रमाण पूर्वक स्थान पर ही रखे । शौच करते समय भी ध्यान रखना चाहिए कि शौच न तो मल-त्याग-स्थान पर ही हो न उससे अत्यधिक दूरी पर ही किन्तु प्रमाण पूर्वक स्थान पर ही शौच (आचमन) करे, जिस से पवित्र होकर स्वाध्याय के योग्य बन सके | 'ठाणाङ्ग सूत्र' के दशवें स्थान में दश अनध्यायों का वर्णन किया गया है । उनमें 'अशुचि-सामन्त' चतुर्थ अनध्याय लिखा है । 'व्यवहार सूत्र' के सप्तम उद्देश में लिखा है “नो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथिणे वा”
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