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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
तृतीय दशा
- टीका-इस सूत्र में आहार-विषयक आलोचना के विषय में कहा गया है । जैसे-कोई साधु गृहस्थों से साधु-कल्प के अनुकूल चारों प्रकार का भोजन एकत्रित कर अपने आश्रम में आया | अब यदि वह उस आहार की-अमक पदार्थ अमक गा प्राप्त किया, अमुक गृहस्थ ने इस प्रकार भिक्षा दी इत्यादि-आलोचना गुरू से पूर्व ही शिष्य से करने लगे तो उसको आशातना लगती है, क्योंकि इससे विनय-भङ्ग और स्वच्छन्दता की वृद्धि होती है । अतः सिद्ध हुआ कि भिक्षा से एकत्रित किये हुए पदार्थों की आलोचना पहिले रत्नाकर के पास ही करनी चाहिए । किन्तु स्मरण रहे कि उनकी आलोचना आहारादि करने के पूर्व ही करनी चाहिए ।
अगले सूत्र में भी सूत्रकार उक्त विषय का ही व्याख्यान करते हैं:
सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता तं पुव्वमेव सेहतरागस्स उवदंसेइ पच्छा रायणियस्स आसायणा सेहस्स ।।१५।। __ शैक्षोऽशनं वा पानं वा खादिम वा स्वादिमं वा प्रतिगृह्य तत्पूर्वमेव शैक्षतरकस्योपदर्शयति पश्चाद् रात्निकस्याशातना शैक्षस्य ।।१५।।
पदार्थान्वयः-सेहे-शिष्य असणं-अशन वा-अथवा पाणं-पानी वा-अथवा खाइम-खादिम वा-अथवा साइम-स्वादिम पडिगाहित्ता-लेकर तं-उस आहार को पुव्वमेव-पहिले सेहतरागस्स-किसी शिष्य को उवदंसेइ-दिखाता है पच्छा-पीछे रायणियस्स-रत्नाकर को दिखाता है तो सेहस्स-शिष्य को आसायणा-आशातना होती है 'वा' शब्द विकल्प या समूहार्थ में हैं।
मूलार्थ---शिष्य अशन, पानी, खादिम और स्वादिम पदार्थों को लेकर गुरू से पूर्व ही यदि शिष्य को दिखावे तो उसको आशातना लगती है। ____टीका-इस सूत्र में प्रकाश किया गया है कि शिष्य गृहस्थों से अशन, पानी, खादिम और स्वादिम पदार्थों को एकत्रित कर सब से पहिले गुरू को दिखावे । यदि वह गुरू से पूर्व ही किसी शिष्य को दिखाता है तो उसको आशातना लगती है; क्योंकि इससे विनय का भङ्ग होता है । तथा ऐसा करने से न गुरू का गुरूत्व ही रह सकता है न शिष्य का शिष्यत्व ही । इस कथन का सारांश यही निकला कि अशनादि पदार्थों को लाकर सब
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