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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
द्वितीया दशा
एक सम्वत्सर के भीतर नौ बार से अधिक नदी आदि जलाशयों में अवगाहन करने से शबल दोष होता है ।
धर्म-प्रचार और जीव-रक्षा का भाव ध्यान में रखते हुए ही श्री सर्वज्ञ प्रभु ने प्रतिपादन किया है कि सम्वत्सर के भीतर दश बार जलावगाहन नहीं करना चाहिए । यदि कोई करेगा तो उसको आज्ञा-भङ्ग और शबल दोनों दोष लगेंगे ।
सूत्र-कर्ता के भाव जीव-रक्षा की ओर विशेष हैं, अतः उक्त तर्क का निराकरण करने के लिए प्रस्तुत सूत्र की रचना की गई । साथ ही यह ध्वनि भी निकलती है कि प्रत्येक कार्य उत्सर्ग और अपवाद मार्ग के आश्रित होकर ही करना चाहिए । तथा प्रत्येक प्राणी को अनेकान्त-मार्ग (स्याद्वाद) के अनुसार चलकर क्रिया काण्ड या पदार्थों के बोध के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए; तभी अभीष्ट पदार्थ की सिद्धि हो सकेगी ।
अब सूत्रकार पुनः माया-स्थानों के विषय में कहते हैं:अंतो संवच्छरस्स दस माई ठाणाई करेमाणे सबले ।।२०।। v Ur % 1 EO RI jL; n'ke k; koLFklu kfu d 98 -' kc y % AA 20 AA
पदार्थान्वयः-संबच्छरस्स-एक सम्वत्सर के अंतो-भीतर दस-दश माई-माया के ठाणाई-स्थान करेमाणे-करते हुए सबले-शबल दोष युक्त होता है ।
मूलार्थ-एक सम्वत्सर के अन्दर दश माया-स्थान करने से शबल दोष होता है ।
टीका-दशम सूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि एक मास के अन्तर्गत तीन बार माया-स्थानों के सेवन से शबल-दोष होता है । सम्भव है कोई तर्काभास करने वाला व्यक्ति इसका अनुचित अर्थ समझ सम्वत्सर में चौबीस बार माया-स्थानों का सेवन कर बैठे । अतः यहां सूत्रकार कहते हैं कि एक वर्ष में दश बार माया-स्थान सेवन करने से शबल-दोष की प्राप्ति होती है ।
माया-स्थानों का सेवन उपादेय रूप से विधान नहीं किया गया है किन्तु अपवाद रूप से ही यहां उसका कथन किया गया है । अतः किसी को भी उनके ग्रहण करने का इच्छुक नहीं होना चाहिए, बल्कि जहां तक हो सके उनके (माया-स्थानों के) त्यागने का प्रयत्न करे; क्योंकि वे सर्वथा त्याज्य हैं और उनके त्यागने में ही श्रेय है ।
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