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तृतीय दशा
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दूसरी दशा में इक्कीस शबल दोषों का विस्तृत वर्णन किया गया है । जिस तरह हस्त- कर्मादि दुष्कर्मों से चरित्र शबल-दोष युक्त होता है, ठीक उसी तरह रत्न त्रय के आराधक आचार्य या गुरू की 'आशातना' करने से भी चरित्र शबल-दोष युक्त होता है । 'आशातनाओं' के परित्याग से समाधि-मार्ग निष्कण्टक हो जाता है, अतः पहली और दूसरी दशा से सम्बन्ध रखते हुए ग्रन्थकार प्रस्तुत तीसरी दशा में तेतीस 'आशातनाओं' का वर्णन करते हैं ।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि आशातना किसे कहते हैं ? उत्तर में कहा जाता है - "ज्ञानदर्शने शातयति-खण्डयति - तनुतां नयतीत्याशातना" अर्थात् जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चरित्र का हास अथवा भंग होता है उसको 'आशातना' कहते हैं । अथवा अभिविधि, अनाचार - सेवन और मूल-व्रत - विराधना से होने वाले चरित्र खण्डन-अर्थात् अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार से होने वाली मूल-गुण और उत्तर- गुण की विराधना का नाम 'आशातना' है ।
उक्त आशातना के मिथ्या-प्रतिपादन और मिथ्या प्रतिपत्ति-लाभ - दो मुख्य भेद हैं । पदार्थों का यथार्थ स्वरूप न जानकर उनके कोई झूठे कल्पित स्वरूप बनाकर कहना मिथ्या-प्रतिपादन 'आशातना' कहलाती है और गुरू-आदि पूज्यजनों पर मिथ्या-आक्षेप करना तथा अपने आपको उनसे बड़ा मानना मिथ्या - प्रतिपत्तिलाभ आशातना होती है ।
सारांश यह निकला कि जिन क्रियाओं के करने से चरित्र में शिथिलता आवे या उसकी विराधना हो वे ही वास्तविक 'आशातनाएं' होती हैं, क्योंकि आत्मा में अविनय - भाव
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