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५८.
दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सिद्धान्त यह निकला कि जल-काय जीवों की रक्षा भी पृथ्वीकाय जीवों की रक्षा की तरह आवश्यक है; क्योंकि संयम-रक्षा जीव रक्षा के ऊपर ही निर्भर है ।
द्वितीया दशा
जल से मनुष्य का सम्बन्ध विशेष होता है, अतः जल- काय जीवों की रक्षा में भी विशेष सावधानता की आवश्यकता है: इसीलिए पुनः जल-विषयक कथन किया गया है । 'समवायाङ्ग सूत्र' में निम्नलिखित पाठ भेद है 'अभिक्खणं २ सीतोदय - वियड-वग्घारियपाणिणा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहित्ता भुंजमाणे सबले' ।। २१ ।।
कुछ हस्त लिखित प्रतियों में निम्नलिखित पाठ मिलता है:
"आउट्टियाए सीओदग, रउग्धाण्णं वग्घारिण्णं" इत्यादि - इसका अर्थ यह है (रज उद्घात) जिस प्रकार रजो-वृष्टि होती है ठीक उसी प्रकार शरीर से पानी के बिन्दु नीचे गिरते हैं इत्यादि । उक्त सब पाठों का तात्पर्य यह है कि जल-काय जीवों की रक्षा के लिए यत्न करते हुए षट् - काय जीवों की भी रक्षा करनी चाहिए ।
प्रश्न यह उपस्थित हो सकता है कि यहां तक जितने भी शबल-दोष प्रतिपादन किये गये हैं, सबका सम्बन्ध चरित्र से ही है; क्या ज्ञान और दर्शन सम्बन्धी कोई शबल दोष नहीं होते उत्तर में कहा जाता है कि ज्ञान और दर्शन सम्बन्धी शबल-दोष भी होते हैं किन्तु यह चरित्र का अधिकार है अतः चरित्र से सम्बन्ध रखने वाले शबल - दोषों का ही यहां वर्णन किया गया है ।
अब प्रश्न यह होता है कि क्रम को छोड़ कर सब से पूर्व चरित्र के विषय में ही क्यों कथन किया गया है ? उत्तर में कहा जाता है कि दर्शन और ज्ञान के पश्चात् चरित्र का विषय है और वह चरित्र दर्शन और ज्ञान पूर्वक ही होता है । अतएव तीनों के ही शबल दोष जान लेने चाहिएं । दर्शन के शबल-दर्शन के विषय में शङ्का, आकङ्क्षा, विचिकित्सा, मिथ्या-दृष्टि-प्रशंसा और मिथ्या-दृष्टि- संस्तुति - हैं । और ज्ञान-शबल- अकाल-स्वाध्याय ज्ञान के प्रति अविनय, ज्ञान का बहुमान न करना, उपधान तप न करना, ज्ञान की निन्हुति (छिपाना), सूत्र और अर्थ की विपर्य्यासिता (क्रम भेद) तथा सूत्र का विपर्य्यास से (क्रम छोड़कर) पठन करना - हैं ।
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सारांश यह निकला कि मुमुक्षु आत्माओं को सम्यग् दर्शन, सम्यग् - ज्ञान और सम्यग् - चरित्र के शबल दोषों का त्याग कर आत्म-1 1- विशुद्धि करने का प्रयत्न करना चाहिए, जिससे निर्वाण-पद की प्राप्ति हो सके ।
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