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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
द्वितीया दशा
यदि कोई व्यक्ति स्थानान्तर से आहारादि लाकर किसी साधु को देना चाहे साधु को उचित है कि उनका ग्रहण न करे, क्योंकि इससे भी अनेक दोषों की सम्भावना है । लाने वाला दोष या निर्दोष का विवेक तो कम ही करेगा साथ ही लेने वाले को अपने संयम का ध्यान नहीं होगा, ऐसी अवस्था में संयम-वृत्ति कैसे रह सकती है । अतः सिद्ध हुआ कि संयम-रक्षा के लिए इस प्रकार के पदार्थों का सेवन न करना चाहिए ।
ऊपर बताये हुए किसी भी प्रकार के आहार को ग्रहण करने से मुनि को शबल दोष की प्राप्ति होती है । ____ 'समवायाङ्गसूत्र' में केवल “उद्देसियं कीयं, आहटु दिज्जमाणं, भुंजमाणे सबले" इतना ही पाठ मिलता है । इस सूत्र की व्याख्या करते हुए सूत्रकार लिखते हैं:-“औद्देशिकं क्रीतमाहृत्य दीयमानं (च) भुञ्जानः, उपलक्षणत्वात्प्रामित्यकाच्छेद्या-निसृष्टग्रहणमप्यत्र द्रष्टव्यम्-इति" वृत्तिकार ने वृत्ति में उपलक्षण द्वारा प्रामित्यक, आच्छेद्य और अनिसृष्ट दोषों का ग्रहण किया है । 'दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र' में उक्त दोषों का मूल में ही पाठ कर दिया है ।
सिद्धान्त यह निकला कि ऊपर कहे हुए सब तरह के आहार त्याज्य हैं । अब सूत्रकार सप्तम शबल दोष का विषय वर्णन करते हैं । अभिक्खणंअभिक्खणं पडियाइक्खेताणं जमाणे सबले ।। ७ ।। अभीक्ष्णमभीक्ष्णं प्रत्याख्याय (अशनादिक) भुजानः शबलः ।। ७ ।।
पदार्थान्वयः-अभिक्खणं २-पुनः पुनः पडियाइक्खेत्ताणं-प्रत्याख्यान करके फिर उन पदार्थों को भुंजमाणे-भोगते हुए सबले-शबल दोष होता है ।
मूलार्थ-पुनः पुनः प्रत्याख्यान कर पदार्थों का भोगने वाला शबल दोष युक्त होता है ।
टीका-इस सूत्र में वर्णन किया गया है कि जिस पदार्थ का एक बार प्रत्याख्यान (त्याग) कर दिया हो फिर उसको ग्रहण नहीं करना चाहिए । जो बार-२ अशनादि पदार्थों का त्याग कर फिर उन्हीं को ग्रहण करने लगता है उसको शबल दोष की प्राप्ति होती है; क्योंकि ऐसा करने से सत्य-नाश, अधैर्य, प्रतिज्ञा-भङ्ग आदि अनेक (अवान्तर)
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