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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
अब सूत्रकार एकादश शबल दोष का विषय वर्णन करते हैं:
सागरिय-पिंड भुंजमाणे सबले ।। ११ ।। सागरिक- पिण्डं भुञ्जानः शबलः ।। ११ ।।
पदार्थान्वयः - सागरिय - स्थानदाता के पिंड आहार को भुंजमाणे - भोगते हुए सबले - शबल दोष लगता है ।
द्वितीया दशा
मूलार्थ - आश्रयदाता के आहार को भोगने से शबल दोष लगता है ।
टीका - साधु जिस घर में ठहरे उसे उपाश्रय या शय्या कहते हैं । सूत्र में बताया गया है कि साधु जिस गृहस्थ के स्थान पर ठहरे, उससे ठहरने की तिथि से ही आहारादि ग्रहण न करे; क्योंकि ऐसा करने से उस की (आश्रयदाता की ) श्रद्धा और भक्ति विशेष हो सकती है । यदि आश्रयदाता के घर से ही आहारादि पदार्थ भी लिए जावें तो सम्भव है कि स्थान देने के लिए भी उस के भावों में परिवर्तन आ जावे; अतः शास्त्रकारों ने उसके घर के तथा उससे किसी प्रकार भी सम्बन्ध रखने वाले पदार्थों के लेने का निषेध कर दिया है ।
यह प्रश्न हो सकता है कि जिस व्यक्ति में भक्ति-भाव नहीं उससे न लेना ठीक है किन्तु जो भक्ति-पूर्वक समर्पण करता है उससे लेने में क्या हानि है ? समाधान में कहा जाता है कि नियम सब के लिए एक होता है और उसका सर्वत्र एक सा पालन होना चाहिए । यदि एक से लिया जाय और दूसरे से न लिया जाय तो गृहस्थों में परस्पर वैमनस्य होने का भय है । दूसरे साधुओं के चित्त भी कई प्रकार के संकल्प विकल्पों से आक्रान्त रहेंगे । जैसे किसी धनिक के घर पर ठहरे साधु के चित्त में विचार आ सकता है कि इतना धनी होने पर भी अमुक व्यक्ति ने भोजन के लिए निमन्त्रित न किया । क्या हुआ यदि हम इसके घर ठहर गए । इत्यादि अनेक भावों से चित्त में राग और द्वेष की विशेष उत्पत्ति होने की सम्भावना रहती है; अतः आश्रय-दाता के घर से आहार न लेना ही अच्छा है । यही त्रिकाल - हितकारी वीतराग भगवान् की वाणी है ।
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"समवायाङ्ग सूत्र" में यह सूत्र 'पञ्चम' और राज - पिंड - विषयक सूत्र 'एकादश' वर्णन किया गया है ।
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