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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
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मूलार्थ - इसी प्रकार, जानकर, चेतना वाली शिला पर, चेतना वाले पत्थर के ढेले पर, घुण वाले काष्ठ पर, जो जीव युक्त है, और ऐसे स्थान पर जहां अण्डे, प्राणी, बीज, हरित, ओस (अवश्याय) उदक, कीड़ी - नगर, पांच वर्ण के पुष्प, दक मिट्टी (सचित्त जल से मिली हुई मिट्टी - कीचड़ ) मर्कट (कोलिया जीव का) संतान ( जाला) आदि हो तथा जहां जीव-विराधना की सम्भावना हो वहां कायोत्सर्ग करना, शयन करना और बैठना आदि क्रियाएं करने से शबल दोष होता है ।
द्वितीया दशा
टीका - इस सूत्र में षट्-काय जीवों की रक्षा के विषय में विधान किया गया है । जब तक आत्मा जीव- रक्षा में यत्न-शील नहीं होगा, तब तक प्रथम महा-व्रत को पालना असम्भव तो नहीं किन्तु कष्ट साध्य अवश्य ही हो जायगा ।
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अतः सिद्ध हुआ कि प्रत्येक कार्य यत्न- पूर्वक करना चाहिए । तथा जान कर सचित्त (चेतना -युक्त - जीव-युक्त) शिला या शिलापुत्र (पत्थर के टुकड़े) पर, घुण तथा अन्य उसके समान जीवों से घिरे हुए अर्थात् घृणादि जीवों से युक्त, अण्डों से युक्त, द्वीन्द्रियादि जीवों से युक्त, बीज-युक्त, हरित - काय - युक्त, ओस - युक्त, जल-युक्त, भूमि में बिल बनाने वाले जीवों से युक्त, पांच वर्ण के पुष्पों से युक्त, जल और मिट्टी से युक्त (कीचड़ वाले) मर्कट- संतान ( कर्मट संतानं-कोलिका जालकंलुत पुटका वा - मकड़ी के जाले) से युक्त स्थान पर तथा इस प्रकार के अन्य स्थानों पर जीव-रक्षा के लिए कायोत्सर्ग, शयन और बैठना-आदि क्रियाएं न करनी चाहिएं, क्योंकि इससे जीव - विराधना अवश्य ही होगी और फिर शबल-दोष का होना अनिवार्य है । अतः पूर्ण यत्न से स्थान को देख तथा शुद्ध कर ऊपर कही हुई क्रियाएं करे ।
प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सूत्र में पुथ्वी, जल, वनस्पति और त्रस कायिक जीवों का तो प्रत्यक्ष पाठ आ गया है किन्तु तेज और वायु-काय के जीवों के विषय में कुछ नहीं कहा । क्या उनकी रक्षा नहीं करनी चाहिए ? उत्तर में कहा जाता है कि कायोत्सर्गादि क्रियाएं काष्ठादि के ऊपर ही हो सकती हैं, अतः उन में रहने वाले जीवों की विराधना की सम्भावना इन क्रियाओं से है किन्तु तेजस्काय और वायु-काय जीवों का ऐसा अधिष्ठान है ही नहीं जिसमें कायोत्सर्गादि क्रियाओं से जीव-विराधना हो सके अतः पाठ देना अनुचित समझकर ही शास्त्रकार ने इनका उक्त यूत्र में पाठ नहीं दिया |
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