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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
द्वितीया दशा
रह सकता । जब तक कोई उक्त जीवों की रक्षा के लिए यत्न-शील रहेगा तब तक ही उसके चित्त में रक्षा का भाव बना रह सकता है, जिस समय उसके चित्त से रक्षा का भाव उड़ जायगा उसी समय उसकी आत्मा आत्म-विराधना और संयम-विराधना युक्त हो जाएगी ।
सिद्ध यह हुआ कि ऊपर कही हुई कोई भी क्रिया सचित्त पृथिवी में न करे । समाधि का मुख्य कारण होने से इसका सर्व-प्रथम वर्णन किया गया है ।
किसी-२ प्रति में “सेज्जं वा” (शयनं वा) अर्थात् सचित्त पृथिवी में शयन करना ऐसा पाठ भी मिलता है । किन्तु “समवायाङ्ग सूत्र में यह पाठ नहीं है, अपितु प्रस्तुत अध्ययन की प्रतियों में ही है ।
सूत्रकार वक्ष्यमाण सूत्र में भी इसी विषय में कहते हैं:एवं ससणिद्धाए पुढवीए एवं ससरक्खाए पुढवीए ।। १६ ।। एवं सस्निग्धायां पृथिव्यां, एवं सरजस्कायां पृथिव्याम् ।। १६ ।।
पदार्थान्वयः-एवं-इसी प्रकार ससणिद्धाए-स्निग्ध पुढवीए-पृथिवी पर अथवा एवं-इसी प्रकार ससरक्खाए-सचित्त रज-युक्त पुढवीए-पृथिवी पर कायोत्सर्ग तथा स्वाध्यायादि क्रियाएं न करनी चाहिएँ ।
मूलार्थ-इसी प्रकार स्निग्ध और सचित्त-रज-युक्त पृथिवी पर कायोत्सर्गादि क्रियाएँ न करनी चाहिएँ ।
टीका-पूर्व सूत्र की तरह इस सूत्र में भी पृथिवी-काय जीवों की रक्षा के विषय में ही प्रतिपादन किया गया है ।
पानी और बालू के मेल से युक्त (कर्दम-कीचड़ वाली) पृथिवी को स्निग्ध और सचित्त तथा अचित्त रज से अतिश्लक्ष्ण (चिकनी) पृथिवी को सरजस्क पृथिवी कहते हैं । उक्त दोनों प्रकार की पृथिवी में कायोत्सर्ग, स्वाध्याय तथा शयनादि क्रियाओं के करने से दया के भावों में न्यूनता आ जाती है; अतः जीव रक्षा का ध्यान रखते हुए अपने शारीरिक सुखों के लिए सचित्त पृथिवी पर उक्त क्रियाएं न करनी चाहिएँ; क्योंकि जीव-विराधना का परिणाम सुखकर न कभी हुआ है न हो सकता है ।
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