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द्वितीया दशा
पहली दशा में असमाधि - स्थानों का वर्णन किया गया है । असमाधि स्थानों के आसेवन से शबल - दोष की प्राप्ति होती है, अतः इस दशा में, पहली दशा से सम्बन्ध रखते हुये, ग्रन्थकार शबल दोषों का विस्तृत वर्णन करते हैं ।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि शबल (दोष) किसे कहते हैं ? उत्तर में कहा जाता कि शबल - 'द्रव्य - शबल' और 'भाव- शबल' दो प्रकार को होता है । द्रव्य - शबल, जैसे कोषकार कहते हैं "शबलं कर्बुरं चित्रम्, " - गो आदि पशुओं के चित्रल (अनेक रंगों का एकत्र समावेश - रङ्ग बिरंगे ) रङ्ग को कहते हैं । भाव- शबल ग्रहण किए हुए दि पर लगने वाले दोष का नाम है; अर्थात् अपने नियम से भ्रष्ट होना ही भाव - शबल कहलाता है । किन्तु अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार पर्य्यन्त ही भाव - शबल होता है !
उदाहरणार्थ- किसी व्यक्ति ने साधु को अपने घर भोजन के लिए निमन्त्रित किया, उस निमन्त्रण को स्वीकार करना अतिक्रम दोष होता है, भोजन के लिए प्रस्तुत हो जाना व्यतिक्रम होता है, पात्रादि में भोजन ग्रहण करना अतिचार दोष होता है और उस भोजन का भोग कर लेना अनाचार दोष हो जाता है ।
मूल गुणादि में प्रथम तीन का भङ्ग शबल दोषाधायक (दोष करने वाला) होता है और चतुर्थ का भङ्ग सर्व भङ्ग कहलाता है; कहा भी है "मूल गुणेषु - आदिमेषु भंगेषु शबलो भवति चतुर्थे भंगे सर्वभङ्ग" ।
शबल दोषों के विस्तृत वर्णन से पहले यह बता देना आवश्यक है कि जैसे शुक्ल वस्त्र पर लगा हुआ धब्बा क्षारादि उचित द्रव्यों से दूर किया जाता है ऐसे ही जिस प्रकार
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