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द्वितीया दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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“आहाकम्ममिति-आधानं-आधा-साधुनिमित्तं चेतसः प्रणिधानम्-यथा-अमुकस्य साधुकृते मया भोज्यादि पचनीयमिति, आधायाः कर्म-पाकादि-क्रिया-आधा-कर्म” इत्यादि ।
इस प्रकार के आहार करने से दया के भावों का नाश होता है; क्योंकि जिन जीवों के शरीर का आहार किया जाता है उन पर दया भाव नहीं रहता ।
- आधा-कर्म आहार करने से प्रथम महा-व्रत की विराधना भी होती है, क्योंकि आधा कर्म आहार करने से, तीन करण और तीन योगों से परित्यक्त (छोड़ी हुई), जीव-हिंसा की प्रतिज्ञा का पालन नहीं हो सकता । यदि मनि उक्त विधि से बनाया हआ आहार करे तो सात व आठ कर्मों की प्रकृतियों को बांधकर संसार-चक्र में परिभ्रमण करेगा । अतः मुनि को कभी भी आधा-कर्म आहार न करना चाहिए ।
अब सूत्रकार राज-पिण्ड-विषयक पञ्चम शबल का वर्णन करते हैं:
राय-पिंडं भुंजमाणे सबले ।। ५ ।। राज-पिण्डं भुजानः शबलः ।। ५ ।। पदार्थान्वयः-राय-पिंडं-राज-पिण्ड भुंजमाणे-भोगते हुए सबले-शबल दोष लगता
मूलार्थ-राजा का आहार करते हुए शबल दोष लगता है ।
टीका-इस सूत्र में बताया गया है कि (जैन) साधु को जैनेतर राजाओं के घर से भोजन कभी न लेना चाहिए; विशेषतः उनके जिन का विधिपूर्वक राज्याभिषेक हुआ है
और जो खड्ग, छत्र, मुकुट और बाल-व्यञ्जनादि चिन्हों से युक्त हैं, क्योंकि इससे अनेक दोषों के होने की सम्भावना है । जैस-१-जैनेतर राजाओं के भोजन में भक्ष्याभक्ष्य का विचार नहीं होता २–बलिष्ठ भोजन कामोत्पादक होने से साधुओं के योग्य नहीं होता ३-बार २ राजकुल में जाने से जनता के चित्त में अनेक प्रकार की शङ्काएं उत्पन्न होती हैं ४-बहुत सम्भव है कि साधु-आगमन को अमङ्गल समझ कोई उसके शरीर को कष्ट पहुंचावे या उसके पात्रादि तोड़ दे तथा ५-यह भी हो सकता है कि साधु को चोर या गप्तचर समझ कर कोई उसको कष्ट पहचावे । ऊपर कही हई और इस प्रकार की अन्य सब क्रियाओं से जिन-शासन में लघुता आ सकती है, अतः राजपिण्ड सर्वथा त्याज्य है।
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