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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
के रोग उत्पन्न हो सकते हैं, अतः आत्मरक्षा के लिए भी रात्रि में भोजन न करना चाहिए । तीसरे में समाधि - स्थ साधुओं की समाधि में रात्रि भोजन से विघ्न पड़ता है, अतः रात्रि - भोजन सर्वथा त्याज्य है । इन सबके अतिरिक्त रात्रि में भोजन न करने का एक विशेष लाभ यह भी है कि इससे तप कर्म सहज ही में सम्पन्न हो जाता है, क्योंकि रात्रि - भोजन के त्याग से आयु का शेष सारा आधा भाग तप में ही लग जाएगा ।
द्वितीया दशा
जैन भिक्षुओं के लिए तो यह नियम परमावश्यक है; क्योंकि पांच महाव्रतों के पश्चात् ही इसका पाठ पढ़ा जाता है, इसलिए इसका समावेश मूल गुणों में ही किया गया है ।
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सिद्ध यह हुआ कि रात्रि में भोजन करने से एक तो श्रीभगवान् की आज्ञा भंग होती है, दूसरे मूल-गुण- विराधना नामक दोष लगता है । अतः सूर्यास्त के अनन्तर और सूर्योदय से पूर्व कदापि भोजन न करना चाहिए । इतना ही नहीं बल्कि जब तक सूर्य की सम्पूर्ण किरण उदय न हो गई हों उस समय तक भी भोजन न करना चाहिए; क्योंकि ऐसा करने पर भी दोष होता है ।
अब सूत्रकार साधुओं के ग्रहण करने योग्य भोज्य पदार्थों के विषय में कहते हैं:आहा- कम्मं भुंजमाणे सबले ।। ४
।।
आधा-कर्म भुञ्जानः शबलः ।। ४ ।।
पदार्थान्वयः - आहा- कम्म - आधा - कर्म भुंजमाणे - भोगते हुए सबले- - शबल दोष लगता
है ।
मूलार्थ - आधा कर्म आहार करने वाले व्यक्ति को शबल दोष लगता
है ।
टीका- आधा कर्म आहार करने से आत्मा शबल दोष युक्त होता है ।
अब यह प्रश्न होता है कि आधा-कर्म आहार किसे कहते हैं ? उत्तर में कहा जाता है कि साधु निमित्त बनाये हुए भोजन में यदि षट-काय वध हो जाय तथा उस (साधु) के लिए यदि स्व-साधारण (अपने भोजन के समान) भोजन तैयार किया जाए तो उसे आधा - कर्म आहार कहेंगे । इस बात को वृत्ति में स्पष्ट कर दिया गया है:
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