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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
से शबल दोष का आसेवन किया हो उसी प्रकार के प्रायश्चित से उस को दूर कर देना चाहिए । किन्तु लेश मात्र भी दोष न रहने देना चाहिए; क्योंकि घट के एक छोटे से छिद्र से भी जैसे उसका सब जल बाहर निकल जाता है उसी प्रकार जीव-रूपी घट में अवशिष्ट एक छोटा सा दोष भी संयम-रूपी जल को बाहर निकाल देने के लिए पर्याप्त है । इसलिए जहां तक हो सके शबल दोष दूर करने के लिए दत्तचित्त होकर प्रयत्न करे, जिससे चारित्र्य - धर्म में अणुमात्र (थोड़ा सा ) भी दोष न रह सके ।
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द्वितीया दशा
जिस प्रकार कुम्भकार प्रमाण पूर्वक चक्र - भ्रमण आदि क्रियाओं से घट उत्पन्न करता है उसी प्रकार प्रमाण पूर्वक क्रियाओं से संयम की रक्षा करे, किन्तु शबल - दोष उत्पन्न न होने दे । अनेक धब्बों से चित्रित शुक्ल पट की तरह संयम-रूपी पट को शबल दोष से चित्रित न होने दे । अर्थात् संयम-शुद्धि के लिए सदा प्रयत्न करता रहे ।
क्योंकि असमाधि होने से आत्मा के सब भाव असंयम की ओर झुक जाते हैं, अतः समाधि की उत्पत्ति को मुख्य उद्देश्य बना कर इस दशा की रचना की गई है ।
यद्यपि 'शबल-दोष' एक ही शब्द है, किन्तु व्यवहार नय के अनुसार, जिज्ञासुओं विशेष ज्ञान के पवित्र विचार और जनता की हित - बुद्धि से शास्त्रकार ने शबल - दोषों की संख्या नियत कर दी है ।
उसका वर्णन सूत्रकार स्वयं करते हैं:
सुयं मे आउ तेणं भगवया एवमक्खायं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं एगबीसं सबला पण्णत्ता, कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेर्हि एगबीसं सबला पण्णत्ता, इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं एगबीसं सबला पण्णत्ता, तं जहा:
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श्रुतं मया, आयुष्मन् तेन भगवतैवमाख्यातं ; इह खलु स्थविरैर्भगवद्भिरेकविंशति शबलाः प्रज्ञप्ताः, कतरे खलु ते स्थविरैर्भगवद्भिरेकविंशति शबलाः प्रज्ञप्ताः ? इमे खलु ते स्थविरैर्भगवद्भिरेकविंशति शबलाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा :
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