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प्रथम दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
टीका-इस सूत्र में इस बात का प्रकाश किया गया है कि कलह करने से समाधि-स्थान का नाश तथा असमाधि-स्थान की वृद्धि होती है । कलहोत्पादक शब्दों के प्रयोग से कलह उत्पन्न होना स्वाभाविक है । जैसे मृत्तिका (मिट्टी) खनन से गर्त होना स्वाभाविक है और उससे आत्म-विराधना और सयंम-विराधना का होना अनिवार्य है । कलह दोनों लोकों में अशुभ फल देने वाला है, अतः यह समाधि का प्रति-बन्धक है।
समाधि-इच्छुक व्यक्ति को उचित है कि वह कलह-उत्पादक शब्दों का प्रयोग कभी न करे प्रत्युत कलह-शान्ति के उपायों की चिन्तना में रहे ।
कलह असमाधि कारक होने से सर्वथा त्याज्य है । जैसे बादलों के हट जाने से सूर्य प्रकाशित हो जाता है, इसी प्रकार कलह-नाश से आत्मा के गुण प्रकाशित हो जाते
अब सूत्रकार आहार के विषय में कहते हैं:सूरप्पमाण-भोई ।। १६ ।। सूर-प्रमाण-भोजी ।। १६ ।। पदार्थान्वयः-सूर-प्पमाण-भोई-सूर्य-प्रमाण भोजन करने वाला । मूलार्थ-सूर्य-प्रमाण भोजन करने वाला ।
टीका-इस सूत्र में इस विषय का वर्णन किया गया है कि प्रमाण-पूर्वक भोजन करने वाला ही समाधि-स्थान की प्राप्ति कर सकता है न कि बिना प्रमाण के; क्योंकि सूर्योदय से सूर्यास्त तक जिस को केवल भोजन का ही ध्यान रहे, उसको समाधि के लिए समय कहां ! यदि कोई व्यक्ति उसे (अप्रमाण-भोजी को) प्रमाण-पूर्वक भोजन की शिक्षा दे या उसके अधिक भोजन का प्रतिवाद करे तो वह अवश्य ही उस (शिक्षक) से कलह कर बैठेगा तथा उस पर असत्य दोषों का आरोपण करने लगेगा । ऐसी अवस्था में उसे समाधि-स्थान की प्राप्ति कैसे हो सकती है, अर्थात् कदापि नहीं हो सकती ।
विसूचिकादि अनेक दोष भी प्रमाणाधिक भोजन से ही होते हैं । इससे निद्रा, आलस्य और रोग की वृद्धि होती है, जिस से स्वाध्याय का अभाव स्वाभाविक है । अतः प्रमाण पूर्वक तथा एक ही समय भोजन करना उचित है । साथ ही जिन पदार्थों से असमाधि होने की आशंका हो उनको भी न खाना चाहिये ।
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