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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
प्रथम दशा
पोराणाणं अधिकरणाणं खामिय विउसविआणं पुणोदीरेत्ता भवइ ।। १३ ।।
पुरातनानामधिकरणानां क्षमापितानां व्यपशमितानां वा पुनरुदीरयिता भवति ।। १३ ।।
पदार्थान्वसः-पोराणाणं-पुरातन, अधिकरणाणं-कलह (जो), खामिय-क्षमित हैं, विउसविआणं-उपशान्त हो गये हैं (उनका जो), पुणोदीरित्ता-फिर उदीरण करने वाला, भवइ-है ।
मूलार्थ-क्षमापन द्वारा उपशान्त पुराने अधिकरणों का फिर से उदीरण करने वाला (उभारने वाला) |
टीका-इस सूत्र में यह बताया गया है कि क्षमापन से शान्त कलहों को फिर से उभारना असमाधि का एक मुख्य कारण है; क्योंकि ऐसा करने से अनेक व्यक्तियों का शुभ-कर्म से हटकर दुष्कर्म में लग जाने का भय है । तथा इस से आत्म और संयम विराधना सहज में ही जाती हैं; क्योंकि अधिकरण शब्द का अर्थ है “अधः करोति आत्मनः शुभपरिणाममित्यधिकरणम्, अधृतिकरणं वा कलह इत्यर्थः" जो आत्मा के शुभ भावों को नीचे कर देता है तथा अधृति (अशान्ति) उत्पन्न करने वाला है उसे अधिकरण कहते हैं । कलह या अधिकरण के कारण आत्मा असमाधि में प्रविष्ट होता है, इससे ही तप का नाश, यश की हानि, ज्ञानादि रत्न-त्रय का उपघात तथा संसार में परस्पर द्वेष की वृद्धि होती
सिद्ध यह हुआ कि समाधि की रक्षा के लिए पुरातन कलह-युक्त बातों का स्मरण न करना चाहिये । प्रत्येक व्यक्ति को इससे शिक्षा लेनी चाहिए कि शान्ति के समय के उपस्थित होजाने पर पुरातन कलहों की स्मृति न करनी ही उचित है; क्योंकि इससे असमाधि बढ़ जाने का भय रहता है । अतः समाधि इच्छुक व्यक्ति को कलहादि से पृथक रहकर ही समाधि प्राप्त करनी चाहिए जिससे उसकी आत्मा का कल्याण हो ।
__ अगले सूत्र में सूत्रकार वर्णन करते हैं कि कलहादि का त्याग कर प्रत्येक व्यक्ति को केवल स्वाध्याय में ही निरत होना चाहिये । किन्तु अकाल में स्वाध्याय भी असमाधि का कारण होता है ।
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