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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
प्रथम दशा
वह आत्म-विशुद्धि करने योग्य बन जायेगा । आत्म-समाधि भी दोष दूर करने के लिए ही की जाती है अतः प्रत्येक को अपने दोष दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
अगले सूत्र में इस बात का वर्णन किया जाता है कि अनिश्चित अर्थ को निश्चित कहना भी असमाधि-स्थान होता है ।
अभिक्खणं २ ओहारइत्ता भवइ ।। ११ ।। अभीक्ष्णमभीक्ष्णमवधारयिता भवति ।। ११ ।।
पदार्थान्वयः-अभिक्खणं २-वार-वार, ओहारइत्ता-अवधारणी भाषा का बोलने वाला जो भवइ-है ।
मूलार्थ-शङ्का युक्त पदार्थों के विषय में शङ्का रहित भाषा बोलने वाला ।
टीका-सूत्र का तात्पर्य यह है कि जब तक पदार्थों के विषय में सन्देह है तब तक उनके लिए निश्चित भाषा का प्रयोग न करना चाहिए; क्योंकि यदि वक्ता को स्वयं किसी पदार्थ का ज्ञान नहीं और वह उसको निश्चित अर्थ कह जनता पर प्रकट करे तो शङ्का उपस्थित होने पर उस (वक्ता) को अवश्यमेव आत्म-विराधना और संयम-विराधना होगी ।
सिद्ध यह हुआ कि सन्दिग्ध विषयों का सन्देह रहित कहना असमाधि का कारण है; अतः बार-बार हठ कर किसी अनिश्चित अर्थ को निश्चित न कहना और दूसरों के गुणों के आच्छादन करने वाली भाषा का प्रयोग न करना ही उचित और दोष-रहित है । जैसे किसी अदास (जो दास नहीं) को दास कहना और अचोर (जो चोर नहीं) को चोर कहना आत्मा में अशान्ति उत्पन्न करता है, उसी प्रकार असत्य भाषण भी आत्मा को अशान्त कर असमाधि-स्थान की प्राप्ति करता है । इसलिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, जिसमें भी सन्देह हो उसको निश्चितार्थ न कहना चाहिए; क्योंकि ऐसा करना आत्म-समाधि का प्रति-बन्धक है । प्रतिबन्धकों को छोड़कार आत्म-समाधि में ही समाधि चाहने वाले को लीन होना चाहिये ।
यहाँ प्रश्न यह हो सकता है कि आत्म-समाधि क्या है जिसके विषय में इतने प्रति-बन्धकों का वर्णन किया जा रहा है । उत्तर में कहा जाता है कि जिस समय
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