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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
प्रथम दशा
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होता है कि कषायादि से रहित शान्त-आत्मा ही समाधि मार्ग में प्रविष्ट हो सकता है । जैसे जल से ही वृक्ष वृद्धि हो सकती है न कि अग्नि से ।
कोहणे ।। ६ ।। क्रोधनः ।। ६ ।। पदार्थान्वयः-कोहणे-क्रोध करने वाला । मूलार्थ-क्रोध करने वाला |
टीका-क्रोध-शील व्यक्ति का अन्तःकरण सदैव असमाधि का स्थान रहता है । क्योंकि (सकृत्क्रुद्धोऽत्यन्तक्रुद्धो भवति) यदि किसी कारण से एक बार किसी को क्रोध उत्पन्न हो जाय तो उस (क्रोध) को त्यागना उस व्यक्ति की सामर्थ्य के बाहर हो जाता है । अर्थात् क्रोध-शील व्यक्ति समाधि स्थानों की वृद्धि कभी नहीं कर सकता प्रत्युत 'असमाधि-स्थानों की ही वृद्धि करता है । जैसे चन्द्र ही शीत और जल की वृद्धि कर सकता है न कि अग्नि । उसी प्रकार शान्त आत्मा ही समाधि स्थानों की वृद्धि कर सकता है न कि क्रोध-शील |
सिद्ध यह हुआ कि आत्म-समाधि के इच्छुक व्यक्ति को न केवल क्षमा ही धारण करनी चाहिए अपितु शान्ति को ही ध्येय बनाकर आत्म-समाधि की प्राप्ति करनी चाहिए ।
सूत्रकार ने और जितने भी दूसरे समाधि के प्रति-बन्धक कारण हैं उन सब का उक्त दोनों सूत्रों में ही समावेश कर दिया है ।
सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह हुआ कि प्रति-बन्धकों को त्याग कर प्रत्येक व्यक्ति को समाधि-स्थ होना चाहिए ।
अब सूत्रकार समाधि-प्रतिबन्धक 'पिशुनता' दोष का वर्णन करते है:पिट्टि-मंसिए ।। १० ।। पृष्ठ-मांसिकः ।। १० ।। पदार्थान्वयः पिट्ठिमंसिए-पीछे अवगुणवाद करने वाला । मूलार्थ-पीछे निन्दा करने वाला ।
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