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प्रथम दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम ।
'आत्मा' को अपना स्वरूप प्रकट हो जाता है और वह 'ध्याता' और ध्यये का भेद भाव मिटा कर केवल 'ध्येय' रूप ही हो जाता है उसको आत्म-समाधि कहते हैं ।
किन्तु उक्त आत्म-समाधि की प्राप्ति क्लेषादि के त्याग से ही हो सकती है अतः आगे के सूत्र में क्लेशादि से उत्पन्न होने वाली असमाधि का ही विषय कहते हैं :
णवाणं अधिकरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाइत्ता भवइ ।।१२।। नवानामधिकरणानामनुत्पन्नानामुत्पादिता भवति ।।१२।।
पदार्थान्वयः-णवाणं-नूतन, अधिकरणाणं-अधिकरणों का जो, अनुप्पण्णाणं-उत्पन्न नहीं हुए (उनको), उप्पाइत्ता-उत्पन्न करने वाला, भवइ-है ।
मूलार्थ-अनुत्पन्न नये कलहों को उत्पन्न करने वाला ।
टीका-सूत्र का तात्पर्य यह है कि कलहादि वास्तव में समाधि के प्रतिबन्धक हैं । जिन कलहों की सत्ता ही नहीं उनको किसी निमित्त से उत्पन्न करना असमाधि कारण होता है, क्योंकि क्लेश से आत्म-विराधना और संयम-विराधना सहज ही में उत्पन्न हो जाती हैं । अतः सिद्ध हुआ कि कलह भी समाधि के मुख्य प्रति-बन्धक हैं । यह न केवल समाधि के ही प्रति-बन्धक हैं अपितु अनेक अनर्थों के मूल भी हैं ।
सूत्र-स्थ 'अधिकरण' शब्द की वृत्तिकार निम्नलिखित व्याख्या करते हैं“अधिकरणानां- कलहानां, यन्त्राणां, ज्यौतिषनिमित्तानां वा” अर्थात् यन्त्रादि उत्पन्न करना अथवा ज्योतिष द्वारा किसी निमित्त को लक्ष्य बनाकर कलह उत्पन्न करना; क्योंकि जितने भी शस्त्रादि निर्माण किए (बनाये) जाएंगे वे हिंसक पदार्थ होने से अवश्य असमाधि के कारण होंगे ।
सूत्र में पठित 'नूतन' शब्द का तात्पर्य शान्ति-पूर्वक तथा परस्पर अविरुद्ध भाव से जीवन व्यतीत करने वाली जनता की शान्ति भङ्ग करने के लिये किसी निमित्त को सामने रखकर कलह उत्पन्न करने से है । जिससे प्राणिमात्र को असमाधि उत्पन्न हो जाए | ऐसे कार्यों से आत्मा समाधि-स्थान से पतित हो असमाधि की ओर जाता है । अतः भव्य जीवों को उचित है कि वे नूतन कलहों से सर्वथा पृथक् रहें ।
अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि. जब यहां नूतन अधिकरणों का वर्णन किया गया है तो पुरातन अधिकरण भी अवश्य होंगे । इसके उत्तर में सूत्रकार स्वयं कहते हैं:
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