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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
प्रथम दशा
पृथ्वी-काय की रक्षा किस प्रकार होनी चाहिए यह इस सूत्र में वर्णन करते हैं:ससरक्ख पाणि-पाए ।। १५ ।। सरजस्क-पाणि-पादः ।। १५ ।।
पदार्थान्वयः-ससरक्ख-सचित्तरज से भरे हुए, पाणि-पाए-हाथ और पादों वाले से आहारादि ग्रहण करना ।
मूलार्थ-यदि गृहस्थ के हाथ और पाद सचित्त (सजीव) रज से लिप्त हों तो उससे भिक्षादि ग्रहण न करनी चाहिए ।
टीका-इस सूत्र में यह दिखाया गया है कि पृथ्वी-काय की रक्षा किस प्रकार करनी चाहिए । जिस गृहस्थ के हाथ और पैर सचित्त (सजीव) रज से लिप्त हों उससे साधु को भिक्षा न लेनी चाहिए; ऐसी अवस्था में भिक्षा ग्रहण करने से पृथ्वीकाय जीवों की विराधना होगी जिसका परिणाम आत्म तथा संयम विराधना होगा । इसके अतिरिक्त जब कोई साधु पुरीषोत्सर्गादि से निवृत्त होकर आए तो उसको हाथ पैर प्रमार्जन कर ही आसनादि पर बैठना चाहिए । ऐसा न करने से पृथ्वीकाय जीवों की विराधना होगी; क्योंकि प्रमार्जन से पूर्व उसके पैर अवश्य ही सचित रज से लिप्त होंगे । तात्पर्य यह है । कि जिस प्रकार हो यत्न शील बने ।
प्रश्न यह होता है कि ऐसी क्रियाओं से क्यों असमाधि उत्पन्न होती है ? समाधान इस प्रकार है कि जीव-हिंसा का परिणाम असमाधि ही होता है। किन्तु इस स्थान पर मृत्तिका नाम निर्देश सारे षट्काय जीवों की रक्षा का उपलक्षक (बताने वाला) है । निम्नलिखित षट्काय के जीवों की रक्षा का ही विधान शास्त्र में किया गया है:- .
१-पृथिवी-काय २ अप्-काय ३-तेजस्काय ४-वायु-काय ५-वनस्पतिकाय और ६-त्रस-काय ।
क्योंकि अहिंसक आत्मा ही समाधि-स्थानों के योग्य है, अतः प्रत्येक समाधि चाहने वाले व्यक्ति को हिंसा से सर्वथा बचना चाहिये ।
इसके अनन्तर सूत्रकार इस विषय का वर्णन करते हैं कि समाधि-युक्त आत्मा को रात्रि तथा दिन में कैसा शब्द करना चाहिए, और कैसे शब्द करने से उसको असमाधि-स्थान
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