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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
इस सूत्र में श्रुतं मया- मैंने सुना है" वाक्य से यह सिद्ध होता है कि शब्द अपौरुषेय नहीं प्रत्युत पौरुषेय ही है ।
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इसके अतिरिक्त इस सूत्र में गुरुभक्ति का भी दिग्दर्शन कराया गया है । क्योंकि नियमपूर्वक गुरुकुल में रहने वाला जिज्ञासु ही वास्तव में सुन सकता है (सुनकर यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकता है) । अतः सिद्ध हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति को यही उचित है कि वह 'आभिनिबोधिक ज्ञान', 'श्रुतज्ञान', 'अवधिज्ञान', 'मनः पर्यवज्ञान' तथा चतुर्दश पूर्व का ज्ञान होने पर भी गुरु भक्ति न छोड़े । जैसे श्री सुधर्म्माचार्य ने भी भगवान् की भक्ति से ज्ञान प्राप्त कर निरभिमान - भाव से सूत्र के प्रारम्भ में ही "श्रुतं मया" वाक्य द्वारा गुरु-भक्ति और स्वविनय का परिचय दिया । फलतः यह वाक्य शब्द की अपौरुषेयता तथा शास्त्र की आप्त-प्रणीतता' का साधक है ।
प्रथम दशा
"श्रुतं मया" वाक्य इस बात को भी प्रमाणित करता है कि 'द्रव्यश्रुत'' 'भावनिक्षेप' के अधीन होने के कारण अनुपयोगी और 'भावश्रुत उपयोगी है; क्योंकि भावश्रुत श्रोत्रेन्द्रिय का उपयोग, लक्षणयुक्त होने से सुना हुआ पदार्थ ही निश्चयात्मक माना जाता है ।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि किसके मुख से सुना हुआ पदार्थ निश्चयात्मक हो सकता है ? समाधान यह है कि सुना हुआ आप्त-वाक्य ही निश्चयात्मक होता है । जब आप्त-वाक्य ही निश्चयात्मक होता है तो यह शङका स्वभावतः उत्पन्न होती है कि आप्त किसे कहते हैं ? उत्तर यह है कि जिस व्यक्ति की आत्मा राग द्वेषादि से रहित है, जिसके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, कर्म नष्ट हो चुके हों तथा जिसकी आत्मा में अनन्त - ज्ञान, अनन्त - दर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व और अनन्त - शक्ति उत्पन्न हो गई हो - सारांश यह है कि जिसकी आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है-उसी को आप्त कहते हैं ।
१ यथार्थ वक्ताओं का बनाया हुआ है न कि ईश्वर का ।
२ पुस्तकादि पर लिखा हुआ या बिना उपयोग (अर्थादि ज्ञान) के पठन किया हुआ ।
३ उपयोगपूर्वक पठन किया हुआ ।
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ज्ञान का आच्छादन करने वाले ।
५ आत्मदर्शन को आच्छादन करने वाले ।
६ सांसारिक पदार्थों में लुभाने वाले । ७ आत्मोन्नति के बाधक ।
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