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प्रथम दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
१-'द्रव्य-असमाधि' उसे कहते हैं जो पदार्थों के सम-भाव से सम्मिलित होने में बाधक होकर 'समाधि उत्पन्न नहीं होने देती । जैसे शाक में लवण, दूध में शक्कर अधिक व न्यून होने से खाने वाले को रुचिकर नहीं होते, इसी प्रकार पदार्थों का सम व उचित प्रमाण से एकत्रित न होना असमाधि का कारण है ।
२-'भाव-असमाधि' का सम्बन्ध आत्मा के भावों पर ही निर्भर है ।
प्रस्तुत दशा में केवल भाव-असमाधि का ही निरूपण किया गया है । यद्यपि कभी कभी 'द्रव्य-असमाधि' भी 'भाव-असमाधि' का कारण होती है । 'द्रव्य-असमाधि' 'भाव-असमाधि' का गौण कारण होते हुए भी 'भाव-असमाधि' की मुख्य है जो जनता के हृदय पर सुगमतया अंकित हो जाती है ।
प्रश्न यह है कि क्या असमाधि के बीस ही स्थान हैं ? इससे न्यूनाधिक नहीं हो सकते ? समाधान में कहा जाता है कि बीस से अधिक स्थान भी हो सकते हैं, किन्तु यहां पर 'नयों के अनुसार ही असमाधि के बीस स्थान कहे हैं । इनके अतिरिक्त अन्य सब भेद इन्हीं के अन्तर्गत हो जाते हैं । जिस स्थान का यहां वर्णन किया गया है उसके सदृश अन्य स्थान भी उसी में आजाते हैं । जैसे 'शीघ्र-गमन' क्रिया असमाधि का एक कारण है, तत्सदृश 'शीघ्र-भाषण' 'शीघ्र-भोजन' आदि सब 'शीघ्र-क्रियाएं' उसी के अन्तर्गत हो जाती हैं । जितने भी असंयम के स्थान हैं वे सब असमाधि के कारण कहे गये हैं । इसी प्रकार इन्द्रिय विषय, कषाय, निद्रा, विकत्था (आत्माभिमान) आदि भी 'भाव-असमाधि' के कारण हैं । किन्तु इन सब का अन्तर्भाव उक्त स्थों में ही हो जाता है । इसी तरह शबल-दोष तथा आशातनाएं आदि सब असमाधि के कारण हैं । किन्तु उनका प्राधान्य सिद्ध करने के लिए इन कारणों का दूसरी ‘दशाओं' में वर्णन किया गया
जब भगवान् ने ही अपने सिद्धान्तों में बीस असमाधि के स्थान कह दिये थे तो ऐसा क्यों कहा कि स्थविर भगवन्तों ने यह बीस भेद असमाधि के प्रतिपादन किये हैं ? इस शंका के समाधान में कहा जाता हैं कि स्थविर भगवान् प्रायः 'श्रुत-केवली' होते हैं; उनका ‘स्वसदृशवक्तृत्व' सिद्ध करने के लिए इस प्रकार वर्णन किया गया है । तत्त्व-वेत्ता (तत्त्व जानने वाले) स्थविर सत्र-रचना करने में स्वयं भी समर्थ हैं, इस बात की सिद्धि के लिए तथा उनके यथार्थ कथन की स्व-कथन के साथ समता दिखाने के लिये इस प्रकार कहा गया है । सारांश यह निकला कि 'श्रुत-केवली' भी केवली भगवान् के
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