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प्रथम दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
मूलार्थ - शीघ्र शीघ्र गमन करना ।। १ ।। अप्रमार्जित स्थान पर गमन करना ।। २ ।। दुष्प्रमार्जित होकर गमन करना ।। ३ ।।
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टीका - इस सूत्र में 'ईर्या-समिति' से सम्बन्ध रखने वाली तीनों असमाधियों का वर्णन किया गया है । जैसे- शीघ्र गमनादि 'शीघ्र- क्रियाओं' से 'आत्म-विराधना' और 'संयम - विराधना' की सम्भावना हो सकती है । उदाहरणार्थ- यदि कोई व्यक्ति असावधानता से शीघ्र - गमन कर रहा हो ( क्योंकि शीघ्रता में असावधानता अवश्य होती है) तो बहुत सम्भव है कि वह गर्तादि ( गढ़े आदि) में गिर पड़े और उससे उसकी 'आत्म-विराधना' हो । दूसरे में, शीघ्र गमन करने से अवश्य ही उससे कीटादि जीवों की हिंसा होगी; इस से 'संयम - विराधना' होती है; जिसका परिणाम दोनों लोकों में असमाधि उत्पन्न करने वाला होता है ।
यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि शारीरिक दशा ठीक न होने पर 'आत्म-समाधि' नहीं हो सकती; अतः आत्म-रक्षा से ही संयम - रक्षा हो सकती है । किन्तु शीघ्र-गमन - क्रिया - जनित अन्य जीवों की हिंसा का परिणाम ऐह-लौकिक (इस लोक की) और पार - लौकिक (पर- लोक की) असामधि का कारण होगा; क्योंकि किसी बलयुक्त प्राणी को चोट आ गई तो वह जाने वाले व्यक्ति को उसी समय स्वेच्छानुसार शिक्षा देगा । दूसरे, उस हिंसा का परिणाम परलोक में दुःख - प्रद अवश्य होगा; अतः शीघ्र गमन क्रिया दोनों लोकों में अशुभ फल देने वाली है यह बात निःसन्देह सिद्ध होती है ।
शीघ्र - गमन-क्रिया की तरह अन्य उसके समान शीघ्र - भाषण, शीघ्र - भोजन, शीघ्र - अवलोकन, शीघ्र (पादादि) प्रसारण (फैलाना) व संकोचन (सिकोड़ना) और शीघ्र - पठनादि क्रियाओं का परिणाम भी दोनों लोकों में अहितकर होता है ।
सूत्र में पठित "च" और "अपि " शब्द "द्रुतं द्रुतं - चारी" क्रिया-सदृश अन्य क्रियाओं के भी बोधक हैं ।
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शीघ्रगमन के जिस प्रकार अनेक अशुभ फल वर्णन किये गए हैं, उसी प्रकार अप्रमार्जित स्थान में गमन करने से भी अनेक दोषों की प्राप्ति होती है । जैसे- अप्रमार्जित स्थान में अनेक जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं । उस स्थान में (बिना प्रमार्जन के) चलने से 'आत्म-विराधना' और 'संयम - विराधना' की सम्भावना है । क्योंकि उस स्थान में उत्पन्न हुए बिच्छु आदि जन्तु पादादि के स्पर्श होने पर शान्त तो रह नहीं सकते, अतः
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