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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
समान कथन करने की योग्यता रखता है; इसलिए उक्त कथन युक्ति-संगत सिद्ध होता है ।
प्रथम दशा
इस सूत्र में यह तो स्पष्ट कर ही दिया है कि 'भाव - असमाधि' के अनेक कारण होने पर भी मुख्य बीस ही कारण हैं । इनके अतिरक्त अन्य सब कारण इन्हीं के अन्तर्गत हो जाते हैं ।
'इह खलु' इत्यादि सूत्र की वृत्ति में वृत्तिकार स्वयं लिखते हैं :
"इह अस्मिन् लोके निर्ग्रन्थ-प्रवचने वा, खलु वाक्यालङ्कारे अवधारणे वा, तथा च इहैव न शाक्यादिप्रवचनेषु, अथवा खलुशब्दो विशेषणे च, स च अतीतानागतानां स्थविराणामेव प्रज्ञापनायेति । "
अर्थात् - 'इह' का अर्थ हुआ इस लोक में अथवा निर्ग्रन्थप्रवचन में । 'खलु' यहां वाक्यालङ्कार व अवधारण ( निश्चय) के लिए दिया गया है । अथवा खलु शब्द से तीन काल के स्थविर भगवान् इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं यह अर्थ जानना चाहिए ।
"ठाणा" "ठाणाणि" (स्थानानि) शब्द नपुंसक -लिग होते हुए भी प्राकृत होने से दोषाधायक नहीं है ।
अब सूत्रकार असमाधि के बीस भेदों का विस्तारपूर्वक नामाख्यान करते हैं:दव-दव-चारि यावि भवइ ।। १ ।। अपमज्जिय-चारि यावि भवइ ।। २ ।। दुपमज्जिय-चारि आवि भवइ ।। ३ ।।
द्रुत द्रुत चारी चापि भवति ।। १ ।। अप्रमार्जित - चारी चापि भवति ।। २ ।। दुष्प्रमार्जित - चारी चापि भवति ।। ३ ।।
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पदार्थान्वयः- दव-दव चारि - अति शीघ्र चलने वाला जो, भवइ होता है, य-'च' शब्द से अन्य क्रियाओं के विषय में भी जानना चाहिए, अवि-अपि शब्द से उत्तर असमाधि की अपेक्षा समुच्चय अर्थ जानना चाहिए । पुनः जो, अपमज्जियचारि भवइ - अप्रमार्जितचारी है । 'च' और 'अपि' शब्द पूर्ववत् जानने चाहिए । दुपमज्जिय-चारि भवइ - जो दुष्प्रमार्जितचारी है, 'च' शब्द से अन्य क्रियाओं के विषय में भी जानना चाहिए । और 'अपि शब्द से उत्तरोत्तर असमाधियों का भी बोध होता है ।
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