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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
aran प्रथम दशा
'आत्म-विराधना' और 'संयम-विराधना' के कारण बन जाते हैं और उसका परिणाम दोनों लोंको में अहित-कर होता है ।
___ “अपि" से रजोहरणादि से अप्रमार्जित शय्या संस्तारक आदि यावन्मात्र उपकरणों का ग्रहण करना भी 'आत्म-विराधना' तथा 'संयम-विराधना' का मुख्य कारण है । अप्रमार्जित स्थान में बैठना, शयन करना, और उच्चारादि (मल) की परिष्ठापना आदि क्रियाएं सुख-प्रद नहीं होती हैं प्रत्युत असमाधि का कारण बन जाती हैं ।
इसी प्रकार दुष्प्रमार्जित के विषय में भी जानना चाहिये । स्थान के भली प्रकार प्रमार्जित न होने पर भी उक्त दोषों की प्राप्ति हो सकती है । इसीलिए सोते हुए भी पार्श्व-परिवर्तन के समय शय्या रजोहरण से प्रमार्जित कर लेनी चाहिए ।
गमन क्रिया करते समय भी सुप्रमार्जित स्थान ही 'समाधि-स्थान' होता है । तद्-विपरीत (अप्रमार्जित व दुष्प्रमार्जित स्थान में गमन) 'आत्म-विराधना' व 'संयम-विराधना' के हो जाने से असमाधि-स्थान होगा ।
__अब प्रश्न यह हो सकता है कि अन्य सब समितियों को छोड़ कर सब से पहले 'ईर्या-समिति' का ही ग्रहण क्यों किया ? उत्तर यह है कि गमन क्रिया ही सर्वप्रथम है । इस क्रिया की समाधि हो जाने से शेष सब समितियों की समाधि सहज ही में हो सकती हैं । तथा उपयोग पूर्वक गमन-क्रिया तभी हो सकती है जब कर्ता सब जीवों को आत्म-सम देखे और जाने ।
इस से सिद्ध हुआ कि समभाव ही समाधि का मुख्य प्रयोजन है । अतः असमाधि को दूर कर समाधि का ही आश्रय लेना चाहिए ।
अब सूत्रकार चतुर्थी असमाधि का विषय वर्णन करते हैं:अतिरित्त-सेज्जासणिए ।। ४ ।। अतिरिक्त-शय्यासनिकः ।। ४ ।।
पदार्थान्वयः-अतिरिक्त-अधिक, सेज्जा-वसति-उपाश्रय और, आसणिएआसनपट्टकादि न रखने ।
मूलार्थ-प्रमाण से अधिक उपाश्रय का पट्टकादि आसन रखना (असमाधि का कारण है) ।
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