________________
00-
SER
प्रथम दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
६ तद्भव-जैसे मनुष्यादि का मृत्यु के अनन्तर मनुष्यादि का ही जीवन होना । समान-जाति होने से इसको तद्भव जीवन कहते हैं ।
७ भोग-जीवन-चक्रवर्ती आदि महापुरुषों का जीवन भोग-जीवन' होता है । ८ संयम-जीवन-साधु महापुरुषों का जीवन । ६ यशो-जीवन-यशरूप जीवन । १० कीर्ति-जीवन-कीर्तिरूप जीवन । जैसे श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का ।
इन सब दश प्रकार के जीवनों की सत्ता आयुरूप जीवन की आश्रित है । प्रस्तुत प्रकरण में संयम-आयु' और यश 'कीर्तिरूप' आयु से ही शास्त्रकार का तात्पर्य है, किन्तु वह भी आयु कर्म के ही आश्रित हैं । इस कथन से यह शिक्षा भी लेनी चाहिए कि इस प्रकार के कोमल आमन्त्रणों से ही शिष्य को बुलावे, क्योंकि शुभ आमन्त्रण चित्त को प्रसन्न कर देता है । साथ ही आयु के सर्वप्रिय होने से सुनने वाले की आत्मा को इस (आशीर्वादात्मक) आमन्त्रण से शान्ति लाभ होता है । इसके अतिरिक्त यह बात भी सिद्ध होती है कि शुभगुणयुक्त पात्र को ही दिया हुआ शास्त्रोपदेश (विद्यादान) पूर्णतया सफल हो सकता है । जैसे क्षेत्र में ही वृष्टि लाभदायक हो सकती है न कि पत्थरों पर । तथा आयुष्मन् कहने से दीर्घजीविता का भी स्पष्ट आभास होता है; क्योंकि दीर्घजीवन ही मनोरथों को सफल बना सकता है ।
सूत्र में दिये हुए “तेणं (तेन)” पद का तात्पर्य यह है:-जिस आत्मा की अनादि काल से सम्बन्ध रखने वाली मिथ्यात्वरूपी वासना नष्ट हो गई है, जिस को केवल ज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हो गया है और जिसके पुण्य प्रताप से तीर्थङकर गोत्र पर का उदय हो रहा है, जिससे उसकी आप्तता जगत्प्रसिद्ध हो रही है-उस श्रमण भगवान् महावीर ने 'इस प्रकार प्रतिपादन किया है ।
सूत्र में “भगवता" शब्द का अष्टमहाप्रातिहार्य रूप सम्पूर्ण ऐश्वर्य युक्त भगवान् से तात्पर्य है । उन्होंने ही तत्त्वों का स्वरूप स-विधि तथा वस्तु-विस्तारपूर्वक 'ख्यान' वर्णन किया है ।
"श्रुतं मया” का तात्पर्य यह भी है कि मैंने अर्थ-रूप में ही भगवान् के मुख से सुना न कि सूत्र-रूप में, अतः सूत्र, अर्थ का अनुवाद रूप होने से प्रामाणिक हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org