________________
६
दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
में अग्नि सिद्ध करता है तो निश्चित है कि उसने अनुमान प्रमाण से ही उसकी सिद्धि की ! अग्नि के पास बैठे हैं उनको तो अग्नि प्रत्यक्ष ही है । इसी प्रकार सर्वज्ञ के विषय में भी जानना चाहिए । जैसे-जो पदार्थ 'मतिज्ञान', 'श्रुतज्ञान', 'अवधिज्ञान' और 'मनः पर्यवज्ञान' के विषय में न आ सके तो यह अवश्य मानना पड़ेगा कि इसके अतिरिक्त भी कोई विशिष्ट - ज्ञान है, जो उक्त पदार्थ को प्रत्यक्ष करता है । उस ज्ञान को जानने वाला ही सर्वज्ञ या सर्वदर्शी कहलाता है । जिस प्रकार हमने देश - विप्रकृष्ट (दूर) का ज्ञान अनुमान प्रमाण किया, ठीक उसी प्रकार काल-विप्रकृष्ट के विषय में भी जानना चाहिए । जैसे रामचन्द्रादिक यदि हम से विप्रकृष्ट (दूर, भूतकाल में) हैं, तो अपने समकालीनों में वह प्रत्यक्ष भी थे । इसी प्रकार सर्वज्ञों के विषय में भी जानना चाहिये ।
I
ऊपर की हुई विवेचना से सर्वज्ञ - सिद्धि भली भाँति हो गई वाक्यों को ही आप्त- वाक्य या शास्त्र कहते हैं ।
प्रथम दशा
सूत्र में 'आयुष्मन शिष्य !' यह आमन्त्रण सिद्ध करता है कि सब कार्यों में जीवन ही प्रधान है । केवल दीर्घजीवी व्यक्ति ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है । तथा 'हे आयुष्मन् शिष्य !' यह आमन्त्रण कोमल होने के कारण शिष्य के हृदय में प्रसन्नता उत्पन्न करता है । आयु सब को प्रिय है । लोक में भी आयुवृद्धि का ही आशीर्वाद देने की प्रथा प्रचलित है। इससे यह सिद्ध हुआ कि सूत्र में 'आयुष्मन्' आमन्त्रण अत्युत्तम तथा युक्तिसंगत है ।
Jain Education International
। सर्वज्ञों के रचित
जब जीवन सबको प्रिय है तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जीवन कितने प्रकार का होता है । उत्तर में कहा जाता है कि जीवन - नाम, स्थापना, द्रव्य, ओघ, भव, तदभव, भोग, संयम, यश और कीर्ति-भेदों से दश प्रकार का होता है । जैसे
१ नाम- जीवन - सजीव या निर्जीव पदार्थों का जीवन-नाम रखना ।
२ स्थापना - जीवन - उन पदार्थों की स्वरूपस्थापना ।
३ द्रव्य-जीवन - जीवितव्य ( जीने की योग्यता) का कारण 'द्रव्य - जीवन' कहलाता
है ।
४ ओघ - जीवन - नारकी आदि का अविशेष (सामान्य) आयुरूप, द्रव्यमात्र सामान्य जीवन 'ओघ - जीवन' होता है ।
५ भव - जीवन - नारकादि भव विशिष्ट रूप ।
For Private & Personal Use Only
ॐॐ
www.jainelibrary.org