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शान्त हो गया । यह बात संसार में सब एक मुख से मानते हैं कि आत्मिक-बल के सामने अन्य सब बल तुच्छ हैं । जिसको इस बल की प्राप्ति हो जाय, उसका पहले तो कोई वैरी ही नहीं हो सकता और यदि कोई हो भी जाय तो वैर छोड़कर शान्त-रूप हो जाता है । अम्बाला के उस चातुर्मास की ही घटना है, एक समय वर्षा के अनन्तर मध्यान्ह काल में आप पुरीषोत्सर्ग के लिए नगर के बाहर गए । जब आप नैतिक क्रियाओं से निवृत्त होकर शहर की ओर लौट रहे थे, मार्ग में एक भयंकर सर्प आपको मिला और आपके साथ ही हो लिया । जब वे शहर के समीप आये और मार्ग परिवर्तन करने लगे तो उन्होंने कहा कि ऐसा न हो कि इसको कोई मार डाले । इतना आप के मुख से निकलते ही वह सांप एक घनी झाड़ी में आपके देखते ही घुस गया और आप शान्त चित्त से शहर में पधार गये ।
इसी प्रकार की एक घटना फीरोजपुर शहर में भी हुई । आप नित्य की भांति नैतिक क्रियाओं से निवृत्त होने के लिए उपाश्रय से बाहर जा रहे थे । रास्ते में एक भयंकर काला नाग, जो अनुमान से दो गज लम्बा रहा होगा, आपको मिला । यह शरीर से भी अत्यन्त स्थूल था । किन्तु इसकी गति इतनी शीघ्र थी कि उसको देखकर आस-पास के पक्षी भी भय के मारे चिल्ला रहे थे । यह आपके पास आया और आपको भली भाँति देखकर सीधा आगे चला गया । इस प्रकार और समय भी आपको हिंसक जन्तु मिले किन्तु आपकी अहिंसा के माहात्म्य से उन्होंने भी भद्रता का ही परिचय दिया । वास्तव में हिंसक जन्तु सहसा किसी पर आक्रमण नहीं करते । वे भी मनुष्य के भाव को अवश्य पहचान लेते हैं । जिनको वे स्वभावतः अहिंसक पाते हैं, उनको देखकर स्वयं भी अहिंसक बन जाते हैं । अतः अहिंसा एक अत्युत्तम धर्म है । इसका माहात्म्य भी अनुपम
. संवत् १६६६ का चातुर्मास आपने लुधियाना शहर में किया । इस वर्ष भी धर्म का अत्यधिक प्रचार हुआ | १६७० का चातुर्मास फरीदकोट में हुआ । इसमें भी अनेक जैन और अजैन व्यक्तियों को अत्यन्त लाभ हुआ । १६७१ का चातुर्मास कसूर और १६७२ का नाभा रियासत में हुआ । इस वर्ष आपको श्वास ने बेहद कष्ट पहुंचाया । किन्तु फिर भी आप अपने नियत मार्ग से न डिगे । आपने अतुल धैर्य और शान्ति धारण की ।
उन दिनों मुनि श्री ज्ञानचन्द्र जी महाराज चातुर्मास के पश्चात् नाभा से विहार कर बरनाला मण्डी में पहुंचे । वहां उनको जीर्ण-ज्वर हो गया था । कई एक योग्य प्रतिकार
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