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है किन्तु इसकी विशद व्याख्या अन्य सूत्र से ग्रहण की गई है । अक्रिया-वाद के वर्णन में 'सूयगडांगसूत्र' के द्वितीय सूत्र के द्वितीयाध्ययन में आए हुए 'अधर्मपक्ष से बहुत सा पाठ लिया गया है और तेरह क्रियाओं के स्थान वर्णन करते हुए लोभ-प्रत्यय के क्रियास्थान से इसी प्रकार अत्यधिक पाठ संगृहीत किया गया है । शेष पाठ अन्य सूत्रों से उद्धृत किया गया है |
सातवीं दशा में बारह भिक्षु-प्रतिमाओं का वर्णन है । इसमें मूल समवायाङ्ग के बारहवें स्थान से और विस्तृत व्याख्या भाग स्थानाङ्ग सूत्र के तीसरे स्थान और भगवती अंतगड आदि सूत्रों से लिया गया है ।
आठवीं दशा में श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पांच कल्याणों का वर्णन है । इस दशा का नाम पर्युषणा कल्प है । इस दशा का मूल सूत्र स्थानाङ्ग सूत्र के पञ्चम स्थान के प्रथमोद्देश से संगृहीत है । यही पाठ आचाराङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध के चौबीसवें अध्ययन में और कल्पसूत्र के आदि में भी पाया जाता है ।
नवमी दशा में तीस महामोहनीय स्थानों का वर्णन किया गया है । इसका उपोद्धात भाग औपपातिक सूत्र और तीस महामोहनीय स्थानों का पद्यरूप वर्णन समवायाङ्ग सूत्र के तीसवें स्थान से उद्धृत किया गया है ।
दशवी दशा में नौ प्रकार के निदान कर्मों का वर्णन किया गया है । उसका उपोद्धात औपपातिक सूत्र से संक्षेप में और शेष पाठ औपपातिक सूत्र या सूयगडांग सूत्र द्वितीय श्रुत-स्कन्ध से अथवा अन्य ग्रन्थों से लिया प्रतीत होता है । तथा नव निदान कर्मों का वर्णन किसी अन्य जैनागम से संगृहीत किया गया है । कारण कि बहुत से आगम व्यवच्छेद भी हो चुके हैं |
ये ही इस रचना के आधार-ग्रन्थ हैं | इस सूत्र का सम्पादन करने वाले श्री भद्रबाहु स्वामी ने इस सूत्र में अपनी ओर से कुछ नहीं जोड़ा, यह इससे स्पष्ट प्रतीत होता है । उन्होंने जनता की हित-दृष्टि से ही आचार-विषयक इस सूत्र का अंगादि सूत्रों के आधार पर ही संकलन किया । बल्कि यों कहिए कि उन्होंने उक्त अंग सूत्रों का आचार-विषयक पाठ एक स्थान पर एकत्रित कर दिया है । इस सूत्र के संकलन में उनका ध्येय जैसा हम कह चुके हैं केवल शिष्य-मण्डली और जनता के आचार को सुधारने का ही था । इसका सम्पादन करने के अनन्तर उन्होंने स्थान-२ पर इसका
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