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समता
समता
१६ अथ मंगलाचरण-शांतरस-समताधिकारः जयश्रीरांतरारीणां लेभे येन प्रशांतितः। ।
तं श्री वीर जिनं नत्वा, रसः शांतो विभाव्यते ॥१॥ अर्थ-जिन श्री वोर प्रभु ने, उत्कृष्ट शांति द्वारा अंतरंग शत्रुओं को जीतकर मुक्ति रूप विजयलक्ष्मी प्रात की; उन श्री वीर परमात्मा को नमस्कार कर शांत रस की भावना भाता हूँ ॥ १॥
अनुष्टुप . विवेचन-संगमदेव के एक रात्रि में २० उपसर्ग सहने वाले, चंडकौशिक जैसे दृष्टि विषधर सर्प द्वारा डसे जाने वाले, शूलपाणि के पूरी रात्रि के विकट उपसर्गों को सहने वाले, गोशालक के तेजोलेश्या के उपसर्ग को सहने वाले महावीर प्रभु कैसे गंभीर व शांत चित्त थे यह तो कल्पना करने से ही प्रतीत हो सकता है। अति असहनीय कष्ट देने वाले पर भी अखंड शांति रखने का आंतरिक मनोबल कितना दृढ़ है जिसकी तुलना नहीं की जा सकती है। अतः ऐसे वीर परमात्मा का नाम स्मरण कर शांत रस भावना भाने का प्रयत्न किया गया है ।
किसी भी शब्द मात्र को ग्रहण कर उसपर पूरा प्रयोग करने को निरुक्ति कहते हैं; अतः कितने ही शब्दों का व्युत्पत्ति से अर्थ न होकर प्रयोग से ही होता है। वीर शब्द के लिए निरुक्ति करते हुए विद्वान कहते हैं:
विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते।
तपो वीर्येण युक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मृतः ।। अर्थात जो कर्म का नाश करता है, तपस्या द्वारा शोभित