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अध्यात्म-कल्पद्रुम से मनुष्य भव में भी सुख नहीं है अतः इस शरीर से आत्मकल्याण साध लेना चाहिए, यही इसका सदुपयोग है ।
उक्त स्थिति दर्शन का परिणाम
इति चतुर्गतिदुःखततीः कृतिन्नतिभयास्त्वमनंतमनेहसम् । हृदि विभाव्य जिनोक्तकृतांततः, कुरु तथा न यथा स्युरिमास्तव१५
अर्थ इस प्रकार से अनंत काल तक अतिशय भय देने वाली चारों गतियों के दुःखों की राशियों को केवली भगवान द्वारा फरमाए गए सिद्धांत के द्वारा हृदय में विचार कर । हे विद्वान ! ऐसा उपाय कर कि जिससे तुझे वे पीड़ाएं पुनः प्राप्त न हों ॥ १५॥
द्रुतविलंबित
विवेचन शास्त्रों के अभ्यास से हमने यह जान लिया है कि चारों गतियों में किस प्रकार के दुःख हैं अतः अब उस ज्ञान के द्वारा हमें ऐसा उपाय करना चाहिए कि इन चारों गतियों में पुनः जन्म न होकर आत्मा ऐसी जगह पहुंच जाए जहां . अनंत अव्याबाध सुख है, वह स्थान मोक्ष ही है।
पूरे अध्याय का सारांश प्रात्मन् परस्त्वमसि साहसिकः श्रुताक्षयद्भाविनं चिरचतुर्गतिदुःखराशिम् । पश्यन्नपीह न बिभेषि ततो न तस्य, विच्छित्तये च यतसे विपरीतकरी ॥ १६ ॥