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: २३२ . अध्यात्म-कल्पद्रुम बुरा विचार कर सच्चा उपाय कर नहीं तो वह समय समीप पा रहा है जब कि तुझे यहां से कूच करना है और यहां के किए हुए भले बुरे कर्मों को भुगतना है ।
आत्म-जागति सुखमास्से सुखं शेषे, भुंक्षे पिवसि खेलसि । न जाने त्वग्रतः पुण्यविना ते कि भविष्यति ॥ २४ ।।
अर्थ- (अभी तो) सुख से बैठता है, सुख से सोता है, सुख से खाता है, सुख से पीता है और सुख से खेलता है, परन्तु भविष्य में पुण्य के बिना तेरे क्या हाल होंगे यह मैं नहीं जानता हूँ ॥ २४ ॥
अनुष्टुप विवेचन — जैसे किसी दरिद्री भिखारी को कुछ रुपये मिल जाय और वह उन रुपयों को एक ही दिन में खाने पीने व मौज में उड़ा दे उसकी कल क्या स्थिति होगी जिसका भान उसे नहीं है, वैसे ही तू भी सांसारिक मौज शौक में मस्त होकर खा पी रहा है और अपने पुण्य धन को खर्च कर रहा है भविष्य के लिए नए पुण्य नहीं बांध रहा है इसलिए मैं नहीं जानता हूं कि तेरी क्या दशा होगी ?
थोड़े कष्ट से तो डरता है और बहुत कष्ट हों, वैसा करता है शीतात्तापान्मक्षिकाकत्तृणादि स्पर्शाद्युत्थात्कष्टतोऽल्पाबिभेषि । तास्ताश्चैभिः कर्मभिः स्वीकरोषिः श्वभ्रादीनां वेदना धिग् धियं ते - अर्थ सर्दी, गर्मी, मक्खियों के डंक और कठोर तृण के स्पर्श से बहुत थोड़े और अल्प काल तक रहने वाले कष्ट