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अध्यात्म-कल्पद्रुम
- अर्थ तेरे शत्रु हैं-विषय, प्रमाद, निरंकुश मन वचन काय, असंयम के सतरह स्थान और हास्यादि । उनसे तू सदा सर्वदा सचेत रहना ॥ ५३॥ उपेन्द्रवजा ।
विवेचन-अपने शत्रुओं को पहचान कर सावधानी से चल-शत्रु ये हैं-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द इन पांचों इन्द्रियों के विषय या इनके उत्तर भेद रूप तेईस विषय । मद्य, विषय, कषाय, विकथा और निद्रा ये यांच प्रमाद । मन, वचन और काया के संवर बिना के व्यापार (निरंकुशता) सतरह प्रकार का असंयम के स्थान जो चरण सितरी में बताए हैं। इन सबको पहचान कर इनसे दूर रह ।
सामग्री-उसका उपाय गुरुनवाप्याप्यपहाय गेहमधीत्य शास्त्राण्यपि तत्त्ववांचि । निर्वाचितादिभराद्यभावेऽप्यूषे न किं प्रेत्य हिताय यत्नः ॥५४॥
अर्थ-हे यति ! तुझे महान गुरू की प्राप्ति हुई, तूने घरबार छोड़े, तत्व प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थों का अभ्यास किया और निर्वाह करने की चिंता आदि का तेरा भार उतर गयां फिर भी परभव के हित के लिए तुझसे प्रयत्न क्यों नहीं होता है ? ॥ ५४॥
उपजाति
विवेचन हे यति ! तुझे सद्गुरू का योग मिला, तूने विरक्त होकर घर दूकान, धन, माल, स्त्री, पुत्र का त्याग किया, उत्तम शास्त्रों का अभ्यास किया, द्रन्यानुयोग का तुझे