________________
३५२
अध्यात्म-कल्पद्रुम कि, “मुझे वीर प्रभु की तरफ पक्षपात नहीं है, कपिल पर द्वेष नहीं है, जिसका वचन युक्तिमान होगा उसी को आदर ना है।" गीतार्थ पर निष्ठा रखना और गुणवान का आधिपत्य स्वीकारना, (परतंत्रपणा मानना इसमें) दोष नहीं है, कारण कि सभी जीवों का बुद्धि वैभव विशाल नहीं होती है। सभी की बुद्धि तत्व को पहचानने में समर्थ नहीं होती है अतः गीतार्थ पर श्रद्धा रखना।
(२) अनाभिग्राहिक सभी देव वंदनीय हैं, कोई निंदनीय नहीं है, एवं सभी गुरु और सभी धर्म अच्छे हैं, ऐसी सामान्यवाणी बोलना, तथा आलस्य करके बैठे रहना और सत्य की परीक्षा न करने की वृत्ति रखना, दूसरा मिथ्यात्व है। इसमें सोना और पीतल हीरा और कांच दोनों समान गिने जाते हैं यही मिथ्याभाव है। .. (३) आभिनिवेशिक-धर्म का यथार्थ स्वरूप समझते हुए भी किसी प्रकार के दुराग्रह के कारण विपरीत प्ररूपणा करना । अहंकार से नया मत · स्थापित करने या चलाने के लिए एवं वंदना नमस्कार आदि प्राप्त करने के लिए बहुत से दूर्भवी जीव इस प्रकार के मिथ्यात्व का सेवन करते हैं।
(४) सांशयिक शुद्ध देव, गुरु या धर्म सच्चे होंगे कि झूठे ऐसी शंका करना। सूक्ष्म अर्थ का संशय तो साघु को भी होता है परंतु वे तो इस अंतिम निर्णय पर रहते हैं कि तत्त्व तो केवली गम्य है, अतः यह मिथ्यात्त्व रूप नहीं हैं वरन सच्चे समाधान जानने की इच्छा रूप है। देव आदि