Book Title: Adhyatma Kalpdrumabhidhan
Author(s): Fatahchand Mahatma
Publisher: Fatahchand Shreelalji Mahatma

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Page 469
________________ ४२८ अध्यात्म-कल्पद्रुम जगत में जहां तहां पाराम है ऐसा समझकर वहां से इन्द्रियों को हटाकर, संयमी पुरुष, जितेन्द्रिय होकर चले। जो अपना कार्य साधना चाहता है वैसे वीर पुरुष को चाहिए कि हमेशा ज्ञानी के कथनानुसार पराक्रम करे; ऐसा मैं कहता (५ -१६८) संयमी को उस वीर पुरुष की उपमा दी जाती है जो युद्ध के मैदान में सबसे आगे प्राणान्त तक लड़ता रहता है । ऐसा ही मुनि पारगामो हो सकता है। किसी भी प्रकार के कष्ट से न डिगता हुवा और चीरे जाने वाले लकड़ी के पाटिए की तरह स्थिर रहने वाला वह संयमी, शरीर के भेद (छेद) तक काल की प्रतीक्षा करता रहता है परन्तु घबराकर पीछे नहीं हटता है ऐसा मैं कहता हूं। (६-१६६) इन्द्रियों के संबंध में पाए हुए विषय का अनुभव न करना यह अशक्य है परन्तु उसमें जो राग द्वेष है उसका भिक्षु त्याग करे। (अ० १६) जो ज्ञानी है उसके लिए कोई उपदेश नहीं है। कुशल पुरुष कुछ करे या न करे इससे वह बद्ध भो नहीं है और मुक्त भी नहीं है। फिर भी लोक रुचि को सब प्रकार से समझकर और समय को पहचानकर वह कुशल पुरुष पूर्व के महापुरुषों द्वारा न किए गए कर्म नहीं करता है । (२-१०३) एक दूसरे की शरम से या भय से पाप कर्म न करने वाला क्या मुनि कहला सकता है ? सच्चा मुनि तो समता को बराबर समझकर अपनी आत्मा को निर्मल करता रहता (३-११५)

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