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शुभाषित ५
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के द्वारा आत्मा को अन्य द्रव्यों में से अलग करना, इसी का अर्थ है उसे (आत्मा को ) जानना ।
(२९६)
प्रज्ञा के द्वारा अनुभव करना चाहिए कि, जो दृष्टा है वही मैं हूं, अन्य सभी जो भाव हैं वे मेरे से परे हैं । (२६८)
शुभ अशुभ रूप आकर तुझे नहीं कहता है कि तू मुझे देख ; तथा आंखों के नजर पड़ने से भी उसे रोका नहीं जा सकता, परन्तु तू अहितकारी बुद्धिवाला बनकर उसे स्वीकारने या त्यागने का विचार किस लिए करता है और शांत क्यों नहीं रहता है ? ( ३७६, ३८२)
भिन्न भिन्न संप्रदाय के संन्यासियों या गृहस्थों के चिन्ह धारण करके मूढ़ लोग मानते हैं कि ऐसा वेष धारण करना ही मोक्ष है । परन्तु बाह्य वेष मोक्ष का मार्ग नहीं है । जिनों ने तो स्पष्ट बताया है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही मोक्ष मार्ग है । (४०८, ४१० )
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उसी मोक्ष मार्ग में तेरे आत्मा को स्थापित कर उसी का ध्यान धर और उसी का आचरण कर; अन्य द्रव्यों में विचरना छोड़ दे ।